Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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यस्मिन् हरप्रभृतयोपि हतप्रभावाः सोऽपि त्वया रतिपतिः पापितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाय येन पीसं न कि सदपि दुर्द्धरवाडवेन ॥'
जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषोंको पराजित कर दिया, उस कामको भी आपने पराजित कर दिया, यह आश्चर्यको बात नहीं है । यतः जो जल संसारकी समस्त अग्निको नष्ट करता है, उस जल को भी बड़वानल नामक समुद्र की अग्नि नष्ट कर डालती है। क्रोधस्त्वया यदि विभो । प्रथम निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलगु माणि विपिनानि न कि हिमानी ।।
संसारमें प्रायः देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य हो शत्र ओंको जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोधको तो नवम गुणस्थानमे हा जीत लिया था । फिर क्रोधके अभावमें चतुर्दश गुणस्थान तक कर्मरूपो शत्रुओंको कैसे जीता? आचार्य सिद्धसेन–कुमुदचन्द्रने इस लोकविरुद्ध तथ्यपर प्रथम आश्चर्य प्रकट किया, पर जब उन्हें ध्यान आया कि शीतल तुषार बड़े-बड़े धनोंको क्षण भरमें जला देता है अर्थात् क्षमासे भी शत्र जोते जाते हैं, इस प्रकार उनके आश्चर्यका स्वयं ही समाधान हो जाता है। ___ इस स्तोत्र पर वैदिक प्रभाव भी है। वृत्रासुर द्वारा रोको गयो गायोंका मोचन इन्द्रने किया था, इस तथ्यका संकेत निम्नलिखित पद्यपर प्रतिभासित होता है
मुच्यन्त एक मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! रौद्ररुपद्रवशतेस्त्वयि बोकितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्र चोरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ।।
हे नाथ ! जिस प्रकार तेजस्वी राजाके दिखते हो चोर चुराई हुई गायोंको छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके दर्शन होते हो अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्योंको छोड़कर भाग जाते हैं।
भक्तकी भगवच्चरणामें अटूट आशाका निरूपण करता हुआ कवि कहता है
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव ! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् ।
तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां जातो निकेतमहं मषिताशयानाम् ॥ १. कल्याणमन्दिर, पद्य ११ । २. वही, पच १३ । ३. वही, पत्र । ४, वही, पध ३६ ।
२१६ : तीर्थकर महाबीर और उनको याचार्य-परम्परा