Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इसी पद्यको प्रतिलोमक्रमसे पढ़नेपर निम्नलिखित पद्य निर्मित होता है ।
" यमराज विनम्रेन रुजोनाशन भो विभो । चारुरुचामीश शमेवारक्ष
माक्षर' ||
तनु
शब्द और अर्थ चमत्कार के साथ नादानुकृति भी कल्पना द्वारा आराध्य की शरीराकृतिके साथ गुणोंका हुआ है।
विद्यमान है। विधायक समवाय भी अभिव्यक्त
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रने जैनन्याथको तार्किकरूप प्रदान करनेके साथ संस्कृतकाव्यको निम्नलिखित तत्त्व प्रदान किये हैं
१. चित्रालंकारका प्रारम्भ
२. श्लेष और यमकों द्वारा काव्यशैलीका उदात्तीकरण
३. शतककाव्यका सूत्रपात
४. स्तवनों में बाह्य चित्रणकी अपेक्षा अन्तरंग गुणों एवं अनेकान्तात्मक सिद्धान्तोंकी बहुलता
५. दर्शन और काव्यभावनाका मणिकांचनसंयोग
आचार्य समन्तभद्रके उक्त काव्यतत्त्वोंका संस्कृत काव्यतत्वोंपर पूर्ण प्रभाव पड़ा है। जब संस्कृत्तकाव्यवा प्रणयन मध्यदेशसे स्थानान्तरित हो गुजरात, कश्मीर और दक्षिणभारतमें प्रविष्ट हुआ, तो समन्तभद्रके काव्यसिद्धान्त सर्वत्र प्रचलित हो गये । भारविमें एकाएक चित्र और श्लेषका प्रादुर्भाव नहीं हुआ है, अपितु समन्तभद्रके काव्य सिद्धान्तोंका उनपर प्रभाव है । मलाबार निवासी वासुदेव कविने यमक और श्लेष सम्बन्धी जिन प्रसिद्ध काव्योंकी रचना की है, उनके लिए वे शैली के क्षेत्रम समन्तभद्र के ऋणी हैं । कवि कुञ्जर द्वारा लिखित राघवपाण्डवीय पर भी समन्तभद्रकी शैलोका प्रभाव है । अतः संक्षेपमें दर्शन, आचार, तर्क, न्याय आदि क्षेत्रोंम प्रस्तुत किये गये ग्रन्थोंकी दृष्टिसे समन्तभद्र ऐसे सारस्वताचार्य है, जिन्होंने कुन्दकुन्दादि आचार्योंके वचनोंको ग्रहण कर, सर्वज्ञका वाणीको एक नये रूपमें प्रस्तुत किया है ।
आचार्य सिद्धसेन
कवि और दार्शनिक के रूप में सिद्धसेन प्रसिद्ध है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराण में सिद्धसेनको कवि और वादिगजकेसरो दोनों कहा है१. स्तुति विद्या, पद्य ८७ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २०५