Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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समय तक विद्यमान रहती है। यही कारण है कि वैदिक ऋषियोंने भी वैदिक मन्त्रोंके प्रयोगमें शब्द रमणीयताको स्थान दिया है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक प्रभृति अलंकारोंके साथ श्लेष और यमक भो उपलब्ध हैं ।
स्वामी समन्तभद्रने स्तुतिविद्या में हृदयको भावावस्थाको अधिक क्षणोंतक बनाये रखने के लिए शब्दोंको रम्यकोडाको स्थान दिया है। इसके बिना हृदयमें कोतुहलको स्थिति प्रबल वेंगके साथ जागृत नहीं की जा सकती है । सवेदनाओंको शब्दोंकी रम्यताके गर्भसे प्रस्फुटितकर कौतूहल स्थिति तक पहुँचा देना है । आचार्य समन्तभद्र के चित्रबन्ध केवल शाब्दी रमणीयताका हो सृजन नहीं करते हैं, अपितु इनमें वक्रोकि ओर स्वभावोक्तियोंका चमत्कार भी निहित है ।
'तकार' व्यञ्जन द्वारा निम्नलिखित पद्यका गुम्फन किया है । श्लोक के प्रथमपादमें जो अक्षर है, वे ही सब अगले पादोंमें यत्र-तत्र व्यवस्थित हैं । साध्यरूपमें यहाँ शाब्दी क्रीडा नहीं है, अपितु साधनके रूपमें है, जिससे शब्दचमत्कार 'परिच्छित्ति की योजना द्वारा निर्मित हुआ है ।
ततोतित्ता तु तेतीतस्तोतृतोती तितो तृतः । ततोऽवासितोत्तोते ततता ते ततोततः ॥
हे भगवन् ! आपने ज्ञानावरणादि कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानादि विशेषगुणोंको प्राप्त किया है, तथा आप परिग्रहरहित स्वतन्त्र है । अतः आप पूज्य और सुरक्षित है । आपने ज्ञानावरणादि कर्मो के विस्तृत - अनादिकालिक सम्बन्धको नष्ट कर दिया है | अतः आपको विशालता - प्रभुता स्पष्ट है - आप तोनों लोकोंके स्वामी है ।
एक-एक व्यंजनके अक्षरक्रमसे प्रत्येक पादका ग्रथन कर चित्रालकारकी योजना द्वारा भावाभिव्यक्ति की गयी है । यहाँ शब्दचमत्कार के साथ अर्थचमत्कार भी प्राप्य है-
येायायाया नानाननाननानन । ममममममामा मिताततीतिततोतितः ॥
हे भगवन्! आपका मोक्षमार्ग उन्हीं जीवोंको प्राप्त हो सकता है, जो कि पुण्यबन्धके सम्मुख हैं अथवा जिन्होंने पुण्यबन्ध कर लिया है। समवशरण में आपके चार मुख दिखलाई पड़ते हैं । आप केवलज्ञानसे युक्त हैं तथा ममता
१. स्तुतिविद्या, पद्म १३ २. स्तुतिविद्या, पद्म १४ ।
श्रुतघर और मारस्वताचार्य : २०३