Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गयो और मध्यसे चन्द्रप्रभ स्वामीका मनोज स्वर्णनिम्न प्रकट हो गया । समन्तभरके इस महात्म्यको देखकर शिक्कोटि राजा अपने भाई शिवायन सहित आश्चर्य चकित हुआ। समन्तभद्रने वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थङ्करोंको स्तुति पूर्ण हो जानेपर राजाको आशीर्वाद दिया।
यह कथानक 'राजालिकथे'में उपलय्ध है। सेनगणको पटावलिसे भी इस विषयका समर्थन होता है। पट्टावलीमै भीमलिंग शिवालयमें शिवकोटि गजाके समन्तभद्र द्वारा चमत्कृत और दीक्षित होनेका उल्लेख मिलता है। साथ ही उसे नवतिलिंग देशका राजा सूचित किया है, जिसकी राजधानी सम्भवतः काञ्ची रही होगी। यहाँ यह अनुमान लगाना भी अनुचित नहीं है कि सम्भवत्त: यह घटना काशीकी न होकर काञ्चीको है । काञ्चीको दक्षिण काशी भी कहा जाता रहा है.-"नतिलिंगदेशाभिरामद्राक्षाभिरामभोमलिङ्गस्वयन्वादिस्तोटकोत्कीरण ? रुद्रसान्द्रचदिकाविशदयशःश्रीचन्द्रजिनेन्द्रसदर्शनसमुत्पन्नकौतूहलकलितशिवकोटिमहाराजतपोराज्यस्थापकाचार्यश्रीमत्समन्तभद्रस्वामिनाम्"" ___ इस तथ्यका समर्थन श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखसे भी होता है। अभिलेख में समन्तभद्र स्वामीके भस्मक रोगका निर्देश आया है | आपत्काल समाप्त होने पर उन्होंने पुनः मुनि-दीक्षा ग्रहण की। बताया है
"वन्द्यो भस्मक-मस्म-सास्कृति-पदः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र-वचन-व्याहत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृधेनेह काले कली,
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मुहुः ।।" अर्थात् जो अपने भस्मक रोगको भस्मसात् करनेमें चतुर हैं, पद्मावती नामक देवीकी दिव्यशक्तिके द्वारा जिन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मन्त्रवचनोंसे चन्द्रप्रभको प्रकट किया और जिनके द्वारा यह कल्णाभकारी जैन मार्ग इस कलिकालमें सब ओरसे भद्ररूप हुमा, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र बार-बार वन्दना किये जाने योग्य हैं।
यह अभिलेख शक संवत् १०२२ का है । अतः समन्तभद्रको भस्मक व्याधिको कथा ई० सन्के १०वी, ११वीं शताब्दीमें प्रचलित रही है।
ब्रह्म नेमिदत्तके आराधनाकथाकोश में भी शिवकोटि राजाका उल्लेख है। राजाके शिवालयमें शिव-नवेद्यसे भस्मक-व्याधिको शान्ति और चन्द्रप्रभजिनेन्द्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बका प्रादुर्भूत होना साथ-साथ वर्णित है। यह १. जैन सिद्धान्त मास्कर, भाग १, किरण १, पृ. ३८ । २. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पृ० १०२ ।
१७६ : तीर्थकर महावीर और रनको आचार्ग-परम्परा