Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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करके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्याय में जीवतत्त्वका, पंचम अध्याय-मैं अजीवतत्त्वका, षष्ठ और सप्तम अध्यायोंमें आस्रवतत्त्वका, अष्टम अध्याय में बन्धतत्त्वका, नवम अध्याय में संवर और निर्जरातत्त्वोंका एवं दशम अध्यायमें मोक्षतत्त्वका विवेचन किया है। प्रथम अध्यायके आरम्भ में सम्यग्दर्शनका स्वरूप और उसके भेदोंकी व्याख्या करनेके पश्चात् " प्रमाणनयेरधिगमः " [१६] सूत्रसे ज्ञान विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है । प्रमाणका कथन तो सभी भारतीय दर्शनों में आया है, पर नयका विवेचन इस ग्रन्थका अपना वैशिष्टय है और यह है जैनदर्शन अनेकान्सवादको देन । नय प्रमाणका ही भेद है । सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं ।
तस्यार्थसूत्र में ज्ञानको ही प्रमाण माना है और ज्ञान के पांच भेद बतलाये है - (१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मन:पर्यय और (५) केवलज्ञान । प्रमाणके दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष ! उक्त ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रिय और मनको सहायतासे होती है । शेष तोन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये आत्मा से ही उत्पन्न होते है - उनमें इन्द्रियादिको अपेक्षा नहीं होतो । तत्त्वार्थसूत्र में उक पाँवों ज्ञानोंका प्रतिपादन किया है । मतिज्ञानकी उत्पत्ति के साधन, उनके भेद-प्रभेद, उनको उत्पतिका क्रम, श्रुतज्ञानके भेद, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके भेद तथा उनमें पारस्परिक अन्तर, पाँचों ज्ञानोंका विषय एवं एकसाथ एक जोवमें कितने ज्ञानोंका रहना सम्भव है आदिका कथन इसमें आया है। अन्तमें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके मिथ्या होनेके कारणका भी विवेचन कर नयोंके भेद परिगणित किये गये हैं । इस अध्यायमें ३३ सूत्र हैं ।
द्वितीय अध्याय ५३ सूत्रों द्वारा जीवतत्त्वका कथन किया है । सर्वप्रथम जोबके स्वतत्त्वरूप पंच भावों और उनके भेदोंका निरूपण आया है । पश्चात् जीवके संसारी और मुक्त भेद बतलाकर संसारी जीवोंके भेद-प्रभेदोंका कथन किया गया है। जीवोंको इन्द्रियोंके भेद-प्रभेद, उनके विषय, संसारी जीवोंमें इन्द्रियों की स्थिति, मृत्यु और जन्मके बीच की स्थिति, जन्मके भेद, उनकी योनियों, जोयोंमें जन्मोंका विभाग, शरीरके भेद उनके स्वामी, एक जीवके एकसाथ सम्भव हो सकनेवाले शरीर, लिंगका विभाग तथा पूरी आयु भोगकर मरण करनेवाले जीवोंका कथन किया है ।
तृतीय अध्याय ३९ सूत्रों में निबद्ध है। इसमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन आया है । अधोलोकका कथन करते हुए सात पृथिवियाँ तथा उनका
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : १५७