Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भगवती आराधना के वर्ण्य विषय के अध्ययनसे स्पष्ट है कि इसके अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो ई० पू० तीसरी चौथी शताब्दी में प्रचलित थे । मुनियों की अन्त्येष्टिकाचित्रण, सल्लेखनाके समय मुनि-परिचर्या, मरणोंके भेद - प्रभेद आदि विषय पर्याप्त प्राचीन हैं। भाषा और शैलीके अध्ययनसे भी यह ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ ई० की आरम्भिक शताब्दियों में अवश्य लिखा जा चुका था । आराधनापर यह एक ऐसी सांगोपांग रचना है, जिसकी समता अन्यत्र नहीं मिलती है ।
रचना
शिवार्यको भगवती आराधना या मूलाराधना नामकी एक ही रचना उपलब्ध है । इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप इन चार आराधनाओंका निरूपण किया गया है । इस ग्रन्थ में २१६६ गाथाए और चालीस अधिकार है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दी से ही इसपर टीकाए और विवृतियाँ लिखी जाती रही हैं । अपराजितसूरिकी विजयोदया टीका, आशाधरकी मूलाराधनादर्पणटीका, प्रभाचन्द्रकी 'आराधनापंजिका' और शिवजित अरुणकी भावार्थदीपिका नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं । इसको कई गाथाएँ 'आवश्यकनिर्युक्ति', 'बृहत्कल्प भाष्य', 'भक्तिपइण्णा', 'संधारण' आदि श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें भी पायी जाती हैं । हम यहाँ आदान-प्रदानकी चर्चा न कर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं कि प्राचीन गाथाओंका स्रोत कोई एक ही भण्डार रहा है, जिस मूलस्रोतसे ग्रन्थका सृजन किया गया है, वह स्रोत सम्भवतः आचार्यों की श्रुतपरम्परा ही है ।
वस्तुतः इस प्रत्थमें आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इनका सम्यक् वर्णन किया गया है। यहाँ रत्नश्रय आराध्य है, निर्मल परिणामवाले भव्यजीव आराधक हैं. जिन उपायोंसे रत्नत्रयको प्राप्ति होती है, वे उपाय आराधना है और इस रत्नत्रयको आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है, यह आराधनाफल है ।
इन चार आराध्यादि पदार्थों को आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है । सम्यक्दर्शनादिको अतिचारोंसे अलिप्त रखना, उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है । आत्मामें बारबार सम्यकदर्शनादिकी परिणति करते जाना उद्यवन है। परीषहादिक प्राप्त होनेपर स्थिर चित्त होकर सम्यक्दर्शनादिसे च्युत न होना निर्वहण है । अन्य कार्यों में चित्त लगने से यदि सम्यग्दर्शनादि तिरोहित होने लगें, तो पुनः उपायोंसे
१२८ : सीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा