Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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मथुराके एक अभिलेखमें उच्च नागरके कुमारनन्दिका उल्लेख आया हैक्षुणे उच्चै गरस्याय्यकुमारनन्दिशिष्यस्य मित्रस्य' ।
एक अन्य अभिलेखमें भी कुमारनन्दिका नाम प्राप्त होता है ।
इन अभिलेखोंमें कुमारनन्दिका नाम आया है और उन्हें नागर शाखाका आचार्य कहा है। इस शाखाका अस्तित्व ई. सम की मासादियों था और इस शाखाके आचार्योंने सरस्वत्तो-आन्दोलनमें ग्रन्थ-निर्माणका कार्य किया । अतः कुमारनन्दि और स्वामी कुमार यदि एक व्यक्ति हों, तो उनका समय ई० सन् को आरम्भिक शताब्दी माना जा सकता है; पर अभी तक इपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इन दोनाका अभिन्नत्व सिद्ध नहीं है।
संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि स्वामी कार्तिकेय प्रतिभाशाली, आगमपारगामी और अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं । यो परम्परासे कार्तिकेयकी द्वादश अनुप्रंक्षाएँ मानी जाती हैं । इस ग्रन्थमें कहीं पर भी कार्तिकेयका नाम नहीं आया है और न ग्रन्यको हो कात्तिकयानुप्रंक्षा कहा गया है। ग्रन्थके प्रतिज्ञा ओर समाप्ति वाक्योम ग्रन्थका नाम सामान्यतः 'अणुपेहा' या 'अणपेक्खा' और विशेषतः 'बारस अणवेक्खा' नाम आया है। भद्रारक शुभचन्द्रने इस ग्रन्थपर विक्रम संवत् १६१३ (ई० सन् १५:६) में संस्कृत टोका लिखी है । इस टीकामें अनेक स्थानोंपर ग्रन्थका नाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा दिया है और ग्रन्थकारका नाम कार्तिकेय मुनि प्रकट किया है।
बहुत सम्भव है कि कार्तिकेयशब्द कुमार या स्वामी कुमारका पर्यायवाची यहाँ व्यवहृत किया गया हो। यह सत्य है कि शुभचन्द्र भट्टारकके पूर्व अन्य किसी भी ग्रन्थमें बारस-अणुवेक्खाके रचयिताका नाम कातिकेय नहीं आया है। शुभचन्द्रने ३९४ संख्यक गाथाको टोका कात्तिकेय मुनिका उदाहरण प्रस्तुत किया है। लिखा है-“स्वामीकार्तिकेयमुनिः क्रौञ्च राजकृतोपगर्ग सोढ्वा साम्य. परिणामेन समाधिमरणेभ देवलोक प्राप्त ।" स्पष्ट है कि स्वामी कातिकेय मुनि क्रौञ्च राजकृत उपसर्गको समभावस सहकर समाधिपूर्वक मरणके द्वारा देवलोकको प्राप्त हुए।
भगवत्ती आराधनाको गाथा-संख्या १५४९ म क्रौञ्च द्वारा उपसर्गको प्राप्त हए एक व्यक्तिका निर्देश आया है। साथमें उपसर्गस्थान राहेडक और शक्ति
१. जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीयभाग, मथुरा अभिलेख संख्या-६४, पु०-४५ । २. वही, अभिलेख-१२१, पृ०१११-१२। ३. स्वामिकातिकेयो मुनीन्द्रा अप्रेक्षाध्याख्यातुकामः । गाथा न०-१ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १३५