Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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हथियार का भी उल्लेख है । पर कार्तिकेय नामका स्पष्ट निर्देश नहीं है । उस व्यक्तिको 'अग्निदयितः लिखा है, जिसका अर्थ अग्निप्रिय है। मूलाराधनादर्पण में लिखा है -- " रोहेडयम्मि रोहेटकनाम्नि नगरे सत्तोए शक्त्या शस्त्रविशेषेण कौंचनाम्ना राज्ञा । अग्गिदइदो अग्निराजनाम्नो राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः ।"" अर्थात् रोहेडनगर में कौंच राजाने अग्निराजाके पुत्र कार्तिकेय मुनिको शक्तिनामक शस्त्रसे मारा था और मुनिराजने उस दुःखको समतापूर्वक सहनकर रत्नत्रयकी प्राप्ति की थी। इस टीकासे प्रकट होता है कि कार्तिकेयने कुमारावस्था में मुनिदीक्षा ली थी। बताया गया है कि कार्तिकेयकी बहन रोहेड नगरके कौंच राजाके साथ विवाहित थी। राजा किसी कारणवश कार्तिकेयसे असन्तुष्ट हो गया और उसने कार्तिकेय को दारुण उपसर्ग दिये। इन उपसर्गोको समतासे सहनकर कार्तिकेयने देवलोक प्राप्त किया। इस कथाके आधारपर इतना तो स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता कार्तिकेय सम्भव है और अन्यका नाम भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा कल्पित नहीं है ।
समय-निर्धारण
मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्दकृत 'बारह अणुवेक्खा' में बारह भावनाओं का क्रम और उनको प्रतिपादक गाथाएं एक ही है । यहाँतक कि उनके नाम भी एक हो हैं । किन्तु कार्तिकेयको 'बारहमप्णुवेक्खा' में न वह क्रम है और न के नाम हैं । इसमें क्रम और नाम तत्त्वाथंसूत्रकी तरह है । तत्वार्थ सूत्र में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संदर, निर्जरा, लोक, चोधिदुर्लभ और धर्म इस क्रम तथा नामोंसे १२ भावनाएँ आयी है । ठीक यही क्रम और नाम कार्तिकेयको 'अणुवेक्वामें हैं। बतएव इस भिन्नता कार्तिकेय न केवल बटुकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं, अपितु तत्त्वार्थ सूत्रकारके भी उत्तरवर्ती जान पड़ते हैं।
परन्तु यहाँ कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थ सूत्रकारके समक्ष भी कोई क्रम रहा है, तभी उन्होंने अपने ग्रन्थमें उस कमको निबद्ध किया है। साथ ही यह भी सम्भावना है कि भावनाओंके दोनों ही क्रम प्रचलित रहे हों, एक क्रमको कुन्दकुन्द, शिवायें, वटुकेर आदिने अपनाया और दूसरे क्रमको स्वामी कार्तिकेय, गृद्धपिच्छ आदिने । अतः भावनाक्रमके अपनाने के आधारपर कार्तिकेय के समयका
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भगवती आराधनाकी मूलाराधना-दर्पणटीका, सोलापुर संस्करण, गाथा – १५४९ । १० १४४३ ।
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१३६ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा