Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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९. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर
१०. भागाभागानुगम
११. अल्पबहुत्वानुगम
इन ग्यारह अनुयोगों के पूर्वं प्रास्ताविक रूपमें बन्धकोंके सस्वको प्ररूपणा को गई है और अन्तमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंकी चूलिका के रूपमें महादंडक दिया गया है । इस प्रकार इस खण्ड में १३ अधिकार हैं ।
प्रास्ताविक रूपमें आई बन्ध सत्त्वप्ररूपणा में ४३ सूत्र है । गतिमार्गणाके अनुसार नारको और तिर्यञ्च बन्धक हैं। मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी । सिद्ध अबन्धक हैं । इन्द्रियादि मार्गणाओंको अपेक्षा भी बन्धके सत्त्वका विवेचन किया है। जबतक मन, वचन और कायरूप योगको क्रिया विद्यमान रहती है तबतक जीव बन्धक रहता है। अयोगकेवली और सिद्ध अबन्धक होते हैं।
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स्वामित्व नामक अनुगम में ५१ सूत्र हैं, जिनमें मार्गणाओं के अनुकमसे कौन-से गुण या जीवके किन भावोस उत्पन्न होते हैं तथा जीवको लब्धियों की प्राप्ति किस प्रकार होती है, आदिका प्रश्नोत्तरके रूपमें प्ररूपण किया गया है। इस अनुगममें सिद्धगति, अनिद्रियत्व, अकायत्व, अलेश्यत्व, अयोगत्व, क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तो क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि पांच जातियां मन, वचन, काय ये तीन योग, मति श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार ज्ञान, तोन अज्ञान, परिहारविशुद्विसंयम, चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन, वेदकसम्यक्त्व, मम्यक् मिथ्यादृष्टित्व और संशित्वभाव ये क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते है । अपगतवेद, कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम ये भोपशमिक तथा क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं । सामायिक और छेदोपस्थापना संयम औपशमिक, श्रामिक और क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं । औपशमिक सम्यग्दर्शन औपशमिकलब्धि से उत्पन्न होता है, भव्यत्व, अभव्यत्व और सासादन सम्यग्दृष्टित्व ये पारिणामिक भाव है। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जोबपर्याय अपने-अपने कर्मों के उदयसे होते हैं । अनाहारकत्व कर्मोके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धि से भी ।
कालानुगममें २१६ सुत्र हैं। इस अनुगममें गति इन्द्रिय, काय आदि मार्गणाओं में जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका विवेचन किया है । जीवस्थान खण्ड में प्ररूपित कालप्ररूपणाकी अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ गुणस्थानका विचार छोड़कर प्ररूपणा की गई है।
तर और गारस्वताचार्य : ६७