Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विरोध नहीं है, क्योंकि यतिवृषभाचार्यका कथन द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षासे है और उच्चारणाचार्यका पर्यायाथिकनयकी अपेक्षासे ।' __यतिवषभाचार्य और उच्चारणाचार्यके कथनमें कई स्थानों पर मतभेद है। यतिवषभके दो उपदेश हैं, उनमेंसे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है । इस उपदेशका आश्रय लेकर-बावीसाए वित्तीओ को होदि' सत्र प्रवृत्त हा है। इसलिए मनुष्य हो बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं, यह बात सिद्ध होती है। आशय यह है कि कृतकृत्य वेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारको, तिथंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है, वह नियमसे अन्तमहत्तं कालतक कृतकृत्यवेदक ही रहकर मरता है, ऐसा यतिवृषभ द्वारा कहे गये चूर्णि-सबसे जाना जाता है। परन्तु उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार 'कृतकृत्य-वेदक-सम्यग्दृष्टि जीव' नहीं ही मरता है, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियोंमें बाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका सत्त्व स्वीकार किया है। इस प्रकार जयधवला टीकामें आये हुए यतिवषभ और उच्चारणाचार्यके मत-वैविध्योंसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उच्चाराचाय की उच्चारावृति मिलनोर अवश्य ही है। यही कारण है कि धवला टोकामें उच्चारणाचार्यका मत जहाँ तहाँ दिखलायी पड़ता है। निःसन्देह उच्चारणाचार्य सिद्धान्तग्रन्थ, उनकी उच्चारणविधि एवं उनकी व्याख्यानप्रक्रियासे परिचित थे। आयंमक्ष और नामहस्तिसे ज्ञान प्राप्तकर यतिवृषभने चूणिसूत्रोंका प्रणयन किया, और उच्चारणाचार्यने यतिवृषभ द्वारा सन्त्रित अर्थको पर्यायाथिकनयको अपेक्षासे विवृत किया है। धवला-टीकामें आये हुए उच्चारणाचायके मतोंसे यह स्पष्ट व्यञ्जित होता है कि उच्चारणाचार्य कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे। उन्होंने उच्चारणकी विधियोंका ही प्ररूपण नहीं किया है, अपितु अर्थोका मौलिक व्याख्यान एवं गाथासूत्रोंमें निहित तत्त्वका स्फोटन भी किया है। उत्तचारणाचार्यका समय-निर्धारण
यतिवृषभ द्वारा सूचित्त अर्थका व्याख्यान करनेके कारण उच्चारणाचार्यका समय यतिवृषभके पश्चात् होना चाहिये । धवला-टीकामें लिखा है-"संपहि जइवसहाइरियसूइदाण दाण्हमत्याहियाराणमुच्चारणारियपरूविदमुच्चारण वत्तइस्सामो'' एवं चुगिणसुत्तोध परूविय संपहि जहण्णाजहण्णट्ठिदीणं काल. १. जयपवला सहित कपायापाहुह, भाग २, पृ० ८१ । २. जयघवला सहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० ४२५ । ९४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा