Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पावें तमशेष वप्पदेवगुरुः ।। अपनोय महाबन्ध षट्खण्डाच्छेषपंचखंडे तु । व्याख्याप्रति च षष्ठं खंडं च ततः सक्षिप्य !! षणां खडानामिति निष्पन्नानां तथा वषायाख्य- । प्राभूतकस्य च षष्ठिसहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ।।
लिखप्राकृतभाषारूपां सम्यक्युरातनव्याख्याम् ।
अष्टसहस्रग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिका महाबन्धे ।। इन पद्योंमें प्राकृतभाषारूप पुरातन घ्याख्या लिखनेका निर्देश आया है । द्वितीय पद्यमें गहओके नाम दिये गये हैं। बतावतारके आगेवाले पद्योंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छ: खण्ड किये गये थे। षटखण्डोंमेंसे महाबन्धको पृथक कर शेष पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञतिको मिलाकर वप्पषों पखण्ड विपन्न किये गमगर हका निारी । वीरसेन स्वामोने उक्त षटनण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर छः खण्डोंपर धवला टीका लिखी है। यह सत्कर्म १५वीं पुस्तक में प्रकाशित है। इसपर सत्कर्मपंजिका भी है, जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें प्रकाशित है। इसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महाकर्मप्रवृतिप्राभूतके चौवीस अनुयोग हैं, उनमेंसे कृत्ति और वेदनाका वेदनाखण्डमें और स्पर्श, कर्म प्रकृतिका वर्गणाखण्डमें कथन किया है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगद्वारों में विभक्त है। इनमेंसे बन्ध और बन्धनीय अधिकारों की प्ररूपणा वगंणाखण्डमें, बन्धन अधिकारको प्ररूपणा खुद्दावन्धक नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें है । शेष १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा मूल षट् खण्डागममें नहीं है । किन्तु आचार्य वीरसेनने वर्गणाखण्डके अन्तिम सत्रको देशावमर्शक मानकर, उसकी प्ररूपणा धवलाके अन्त में को है। उसोका नाम सत्कर्म है। इसका ज्ञान उन्होंने ऐलाचार्यसे प्राप्त किया था | धवलाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रश्नप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या रही है । यह वप्पदेव द्वारा लिखित नहीं है। इस कथनको सिद्धि सम्यकपुरातनपद द्वारा होतो है। इस पदका अर्थ है पर्याप्त प्राचीन 1 अतः सम्यकपुरातनको व्याख्याप्राप्तिका विशेषण माननेपर यह प्राचीन व्याख्या सिद्ध हो जाती है । षट्खण्डागममें आये हुए मतभेदसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता १. इनदि श्रुतावतार, पद १७१-१७६ । ९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा