Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भीत जासादासम्पपष्टि गुमस्या से लेकर अमौगिकेवली गुणस्यान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा सर्वलोकमें रहते हैं।
आदेशको अपेक्षा गतिके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत्तसम्यग्दृष्टि गणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण धोत्रमें रहते हैं।
तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यादृष्टि जीव किसने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। ___ स्पष्ट है कि एक ही सूत्रमें प्रश्न और उसर इन दोनोंकी योजना को गयो है। वास्तवमें यह लेखककी प्रतिभाका वैशिष्ट्य है कि उसने आगमके गंभीर विषयको संक्षेप में प्रश्नोत्तररूपमें उपस्थित किया है। इस प्ररूपणाका प्रमुख वर्ण्य विषय मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षासे जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका कथन करना है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस मार्गणामें अनन्त संख्यावाली एकेन्द्रिय जीवोंकी राशि आती है, उस मार्गणावाले जीव सर्वलोकम रहते हैं और शेष मार्गणावाले लोकके असंख्यातवें भागमें । केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात संयम आदि जिन मार्गणाओंमें सयोगीसिन आते हैं, वे साधारण दशामें तो लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं किन्तु प्रतरसमुद्धातकी दशामें लोकके असंख्यात बहुभागोंमें तथा लोकपूर्णसमुद्घातकी दशामें सर्वलोक में रहते हैं । बादर वायुकायिक जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । __ स्पर्शन-प्ररूपणामें १८५ सूत्र हैं। इनमें, नानागुणस्थान और मार्गणावाले जीव स्वस्थान, समुद्धात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, का विवेचन किया है । जीव जिस स्थानपर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है। और उस शरीरके द्वारा जहाँ तक वह आता जाता है वह विहारवत् स्वस्थान कहलाता है । प्रत्येक जीवका स्वस्थानकी अपेक्षा विहारवत् स्वस्थानका क्षेत्र अधिक होता है । जैसे सोलहवें स्वर्ग के किसी भी देवका क्षेत्र स्वस्थानको अपेक्षा तो लोकका असंख्यातवा भाग है, पर वह विहार करता हुआ नीचे तृतीय नरक तक
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ६१