Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तीनों शब्दनय चारों कषायोंको द्वेषरूप मानते हैं क्योंकि उनसे कर्मों का आसव होता है। राग और हषोंका विवेचन हा अनुयायण है— एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ।
२. स्थिति-विभक्ति - आत्माकी शक्तियोंको आवृत्त करनेवाला कर्म कहलाता है । यह पुद्गन्यरूप होता है। इस लोक में सूक्ष्म कर्मपुद्गलस्कन्ध भरे हुए हैं जो इस जीवकी कायिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ आकृष्ट होकर स्वतः आत्मासे बद्ध हो जाते हैं । कर्मपरमाणुओं को आकृष्ट करनेका कार्य योग द्वारा होता है। यह योग मन, वचन, काय रूप है। इस योगकी जैसी शुभाशुभ या तीव्र - मन्दरूप परिणति होती है उसीप्रकार कर्मों का आस्रव होता है । कषायके कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग उत्पन्न होते हैं । जब फर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर उदयमें आते हैं तो इष्ट या अनिष्ट फल प्राप्त होता है । इसप्रकार जीव पूर्ववद्ध कर्मके उदयसे क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्मका बन्ध करता है । कर्मसे कषाय और कषायसे कर्मबन्धकी परम्परा अनादि है ।
कबन्धके चार भेद हैं-- १. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३ अनुभागबन्ध, ४. प्रदेशबन्ध | कर्मोंमें ज्ञान दर्शनादिको रोकने और सुख-दुःखादि देने का जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । कर्म बन्धनेपर कितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहेंगे उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिबन्ध है । कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दें उस फलदानको शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है । कर्मपरमाणुओं की संख्या के परिमाणका नाम प्रदेशबन्ध है । प्रकृति और प्रदेशनन्ध योग - मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं। तथा स्थिति और अनु भागबन्ध काय होते हैं ।
स्थिति-विभक्तिनामक. इस द्वितीय अधिकार में स्थितिबन्ध के साथ प्रकृतिबन्धका भी कथन सम्मिलित है। प्रकृति और स्थितिबन्धका एक जीवकी अपेक्षा कथन स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अठेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्वकी दृष्टिसे किया है। कसायपाहुडमें मोहनीयकर्मका वन विशेष रूपसे आया है। इस अधिकारमें प्रकृति-विभक्ति के दो भेद किये हैं । प्रथम मेद मूलप्रकृति मोहनीयकर्म है और द्वितीय भेद उत्तरप्रकृतिमें मोहनीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं। इसप्रकार विभिन्न अनुयोगों द्वारा स्थिति-विभक्ति में चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर मोहनीयके २८ भेदोंकी
३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा