Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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८. अल्पबहुत्वानुगम । जोवस्थान नामक प्रथम खण्डकें ही ये आठ अधिकार हैं । इन अधिकारों अन्तर जीलानी है। इसको भी जीवस्थानका भाग सिद्ध करनेके लिए धवलाकारको शंका-समाधान करना पड़ा है और अन्तमें उन्होंने बताया है कि चूलिकाका अन्तर्भाव आठ अनुयोगद्वारोंमें होता है | अतः चूलिका जीवस्थान से भिन्न नहीं है। धवलाकारकी इस चर्चासे 'यह स्पष्ट है कि पुष्पदन्त आचार्य द्वारा आठ अनुयोगद्वारोंमें जो बातें कथन करने से छूट गई थीं उनसे सम्बद्ध बातोंका कथन चूलिका अधिकारमें किया गया है। धवला के अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि चूलिका अधिकार पुष्पदन्त द्वारा रचित नहीं है । पुष्पदन्सने केवल जीवस्थान नामक खण्डका हो उक्त सूत्रोंमें ग्रथन किया है ।
इन्द्रनन्दि' ने लिखा है- 'पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितको पढ़ाने के लिए कर्म प्रकृतिप्राभूतकालः खण्डों में उपसंहार किया है । और जीवस्थानके प्रथम अधिकारकी रचना की और उसे जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलिका अभिप्राय अवगत करनेके लिए उनके पास भेजा। जिनगालितसे सत्प्ररूपणाके सूत्रोंको सुनकर भूतबलिने पुष्पदन्त गुरुका दुखण्डागम रचनाका अभिप्राय जाना ।
जीवस्थानके अवतारका कथन करते हुए धवलाटीकाकार आचार्य वीरसेनने जो विमर्श प्रस्तुत किया है उससे आचार्य पुष्पदन्तको रचनाशक्ति, पाण्डित्य एवं प्रतिमा पर पूरा प्रकाश पड़ता है। लिखा है - " दूसरे आम्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत चौदह वस्तु-अधिकारोंमें एक चयन लधि नामक पांचवां वस्तु-अघिकार है । उसमें बीस प्राभृत हैं । उनमें से चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति है । उस कर्मप्राभृतप्रकृतिके २४ अर्थाधिकार हैं । उनमें छठा अधिकार बन्धन नामक है । इस अधिकारके भी चार भेद हैं
१. बन्ध, २. बन्धक, ३ . बन्धनीय और ४. बन्वविधान | इनमें से बन्धक अधिकारके ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। उनमें पञ्चम अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाणानुगम है । इस जीवस्थान नामक खण्डमें जो द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकार है वह इसां बन्धक नामक अधिकारसे निस्सृत है । बन्धविधानके भी चार भेद हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारों बन्धोंमेंसे प्रकृतिबन्धके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध | उत्तर१. अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम् । कर्मप्रकृतिप्रभूतमुपसंहार्येन
भिरिह खण्ड ||
- श्रुतावतार श्लोकसंख्या १३४ ।
५४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा