Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सूत्रशैलीके समस्त लक्षण इसमें समाहित हैं । आचार्यं वीरसेनने जयधवलामें 'कसायपाहुढ' को सूत्रग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है
" एवं सव्वं पि सुत्तलक्षणं जिणवयणकमल विणिग्गय अत्यपदाणं चैव संभवइ, ण गणहरमुह विणिग्गयगंथरयणाए तत्थ महापरिमाण तुबलंभादो; ण; सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडि विरोहाभावादी ।""
अर्थात् सूत्रका सम्पूर्ण लक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निस्सृत अर्थपदों में ही संभव है, गणधर के मुखकमलसे निकली हुई रचनामें नहीं; क्योंकि गणधर - की रचनाको परिमाण है। ना होनेपर भी गणधर के वचन भी सूत्र के समान होनेके कारण सूत्र कहलाते हैं । अतः उनकी ग्रन्थरचनामें भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है । गणधरवचन भी बीजपदोंके समान सूत्ररूप है । अतएव गुणधर भट्टारककी रचना 'कसायपाहूड' में सूत्रशैलीके सभी प्रमुख लक्षण घटित होते हैं । यहाँ विश्लेषण करनेपर निम्नलिखित सूत्र लक्षण उपलब्ध हैं
१. अर्थमत्ता
२. अल्पाक्षरता ३. असंदिग्घता
४. निर्दोषता
५. हेतुमत्तत्ता
६. सारयुक्तता
७. सोपस्कारता
८. अनवद्यसा ९ प्रामाणिकता
स्पष्ट है कि कसा पाहुडकी गाथाओंकी शैली सूत्रशैली है। इस ग्रन्थ में १८० + ५३ = २३३ गाथाएँ हैं। इनमें १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक है, छः गाथाएँ अद्धापरिमाणका निर्देश करती हैं और ३५ गाथाएँ संक्रमणवृत्तिसे सम्बद्ध हैं। जयधवला के अनुसार ये समस्त २३३ गाथाएं आचार्य गुणधर द्वारा विरचित हैं । यहाँ यह शंका स्वभावतः उत्पन्न होती है कि जब ग्रन्थ में २३३ गाथाएँ थीं, तो ग्रन्थ के आदिमें गुणधराचार्यने १८० गाथाओंका हो क्यों निर्देश किया ? आचार्य वीरसेनने इस शंकाका समाधान करते हुए बताया है कि १५ अधिकारोंमें विभक्त होनेवाली गाथाओंकी संख्या १८० रहनेके कारण गुणधराचार्यने
१. जयघवला प्रथम भाग, पृ० १५४.
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श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३३