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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदोपिका
प्रमुख सिद्धान्तोंका विशेषरूपसे विवेचन किया गया है । पाँचवें, नौवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवे, अठारहवें, इक्कीसवें और चौबीसवें तीर्थंकरोंके स्तवनमें अनेकान्त, स्याद्वाद, सापेक्ष नयवाद, सप्तभंगी, कार्योत्पत्तिमें उपादान और निमित्त दोनों कारणोंकी अनिवार्यता, भवितव्यता, अहिंसा, अपरिग्रह आदि जैनधर्म और जैनदर्शनके मौलिक सिद्धान्तोंका युक्तिपूर्वक समर्थन उपलब्ध होता है ।
यहाँ चौबीस तीर्थंकरोंकी कुछ विशेषताओंको स्तवनके आधार पर बतलाया जा रहा है__ प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ जिन प्रथम प्रजापति थे। उन्होंने अपनी प्रजाको कृषि आदि छह कार्योंमें प्रशिक्षित किया था, जिससे कल्पवृक्षोंके अभावमें वे अपनी आजीविका का निर्वाह कर सकें। सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर और दिगम्बरी दीक्षा धारण करके तपस्या करते हुए शुक्लध्यान के द्वारा चार घातिया कर्मोंका क्षय करके श्री वृषभ जिनने वीतराग और सर्वज्ञ बनकर भव्य जीवोंके कल्याणके लिए जीवादि तत्त्वोंका उपदेश दिया था और अन्तमें वे ब्रह्मपदरूप अमृत ( मोक्ष )के स्वामी हुए।
द्वितीय तीर्थंकर श्री अजित जिनके प्रभावसे उनका बन्धुवर्ग अजेय शक्तिका धारक हुआ था। आज भी उनका नाम स्वकार्य सिद्धिकी कामना रखने वाले जनों के द्वारा मंगलके लिए लिया जाता है। उन्होंने महान् धर्मतीर्थका प्रणयन किया था। वे ब्रह्मनिष्ठ थे। उनके लिए शत्र और मित्र एक समान थे । अन्तमें उन्होंने आत्मज्ञानके द्वारा रागादि दोषोंको दूर करके आत्मलक्ष्मीको प्राप्त किया था।
तृतीय तीर्थंकर श्री शंभव जिन सांसारिक दुःखोंसे पीड़ित जनोंके लिए आकस्मिक वैद्य थे। उन्होंने मिथ्या अभिनिवेशके कारण जन्म, जरा, मृत्यु आदिके दुःखोंसे पीड़ित जगत्को निर्दोष शान्तिकी प्राप्ति करायी थी। बन्ध और मोक्ष, बन्ध और मोक्षके कारण तथा मुक्तिका फल इन सबकी व्यवस्था स्याद्वादी श्री शंभव जिनके मतमें ही बनती है, एकान्तवादियोंके मतमें नहीं। इसलिए श्री शंभव जिन शास्ता थे।
चतुर्थ तोर्थंकर श्री अभिनन्दन जिनने प्रारम्भमें क्षमाके साथ दयाका आश्रय लिया था। और अन्तमें समाधिकी सिद्धि के लिए दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करके दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी। अर्हन्त अवस्था प्राप्त करने पर अपने उपदेश द्वारा उन्होंने मिथ्या अभिनिवेशके कारण पीडित जगत्को तत्त्वका ग्रहण कराया था। साथ ही यह भी बतलाया था कि विषयोंमें आसक्तिसे तृष्णाकी वृद्धि होती है । इस प्रकार श्री अभिनन्दन जिनका मत लोक कल्याणकारी है ।
पंचम तीर्थंकर श्री सुमति जिनके स्तवन में अनेक दार्शनिक तत्त्वोंकी विवेचना
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