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श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन
स्वपक्ष सौस्थित्य मदावलिप्ता वासिंहनादैविमदा बभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मदार्द्रगण्डा
गजा यथा केसरिणो निनादैः ॥ ३ ॥
सामान्यार्थ - जिन चन्द्रप्रभ भगवान् के वचनरूप सिंहनादोंके द्वारा अपने मतपक्ष की सुस्थितिका घमण्ड करनेवाले प्रवादी जन उसी प्रकार मद रहित हो गये थे, जिस प्रकार सिंहकी गर्जनाओं द्वारा मदसे गीले गण्डस्थल वाले हाथी मदरहित हो जाते हैं ।
विशेषार्थ- - चन्द्रप्रभ भगवान्ने जीवादि तत्त्वोंका उपदेश दिया, अनेकान्त शासनका प्रतिपादन किया तथा भव्य जीवोंको सन्मार्ग में चलनेके लिए प्रेरित किया । उनके जितने भी प्रवचन हुए वे सब युक्तिसंगत एवं प्रमाणसंगत होनेसे अकाट्य हैं, अजेय हैं । इसीलिए उनके वचनों को सिंहनाद कहा गया है । उनकी उस वचनरूप सिंह गर्जना को सुनकर अनेक प्रवादी ( एकान्तवादी ) जन मदरहित हो गये थे । श्री चन्द्रप्रभ जिनके वचन सुनने के पहले एकान्तवादियों को अपने मतका बहुत घमण्ड था । वे समझते थे कि हमारा ही मत श्रेष्ठ है, बाधारहित है । अतएव वह सुस्थित है, अकाट्य है । किन्तु जब उन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् के वचनोंको सुना तब उन्हें सम्यक् क्या है और मिथ्या क्या है इसका विवेक हो गया और विवेक हो जानेपर उन्हें अपने मतके श्रेष्ठ होनेका जो गर्व था वह चूर-चूर हो गया । वे मदरहित होकर विनम्र हो गये और चन्द्रप्रभ भगवान्के भक्त हो गये ।
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लोक में प्रसिद्ध है कि हाथियोंके मस्तकसे मद झरता रहता है और उससे हाथियोंके कपोल गीले हो जाते हैं । मदस्रावी हाथी मदमस्त रहते हैं । वे समझते हैं कि हमसे बड़ा और कोई नहीं है । किन्तु जब वे सिंह की गर्जना सुनते हैं तब उनका मद चूर-चूर हो जाता है । अब वे समझने लगते हैं कि हमसे सबल तो सिंह है और सिंह के समक्ष हम निर्बल हैं । अतः जिस प्रकार सिंहके समक्ष हाथी निर्मद हो जाते हैं उसी प्रकार चन्द्रप्रभ भगवान् के समक्ष एकान्तवादी निर्मंद हो गये थे ।
यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः
पदं बभूवाद्भुतकर्मतेजाः ।
अनन्तधामाक्षर विश्वचक्षुः समन्तदुःखक्षयशासनश्च ॥ ४ ॥
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