Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 167
________________ १४८ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अपनी स्वाभाविक कान्तिसे युक्त तो था ही, किन्तु तपश्चरणसे उत्पन्न हुई आभासे और भी अधिक कान्तिपूर्ण हो गया था। अतः तपसे उत्पन्न हुई उनके शरीरके परिमण्डलकी कान्ति उसी प्रकार सुशोभित हुई थी जिस प्रकार चन्द्रमाके परिमण्डलकी कान्ति सुशोभित होती है । तात्पर्य यह है कि उनके शरीरकी प्रभा शरीरके चारों ओर उसी प्रकार व्याप्त हो गई थी जिस प्रकार चन्द्रमाकी प्रभा चन्द्रमाके चारों ओर व्याप्त हो जाती है । इस श्लोकके द्वितीय चरणमें 'कृतमदनिग्रह' और 'विग्रहाभया' इन दो पदोंके स्थानमें 'कृतमदनिग्रहविग्रहाभया' ऐसा एक पद भी किया जा सकता है। इस एक पदमें कृतमदनिग्रह शब्द विग्रहका विशेषण हो जाता है । तब 'कृतमदनिग्रहविग्रहाभया शोभितम्' का अर्थ होगामदका निग्रह करनेवाले शरीरको आभा शोभित हुई । लेकिन जब कृतमदनिग्रह पदको विग्रहाभया पदसे पृथक् रखते हैं तब कृतमदनिग्रह शब्द श्री मुनिसुव्रत जिनके लिए सम्बोधन हो जाता है, जैसा कि सामान्यार्थमें लिखा गया है । यहाँ 'विग्रहाभया' इस पदमें विग्रहाभा शब्द कर्ता है और इसमें तृतीया विभक्ति हुई है । तथा 'शोभितम्' यह भाववाचक क्रिया पद है। अतः 'विग्रहाभाया शोभितम्' का अर्थ है-शरीरकी आभा शोभित हुई। शोभ धातुसे भाव अर्थमें 'क्त' प्रत्यय होने पर 'शोभितम्' यह भाववाचक क्रिया पद बनता है । यतः 'शोभितम्' यह पद 'क्त' प्रत्ययान्त है, अतः इसके योगमें 'विग्रहाभया' यह कर्तृपद तृतीयान्त हो गया है। शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ--हे यतिराज ! आपका अपना शरीर चन्द्रमाकी किरणोंके समान निर्मल शुक्ल रुधिरसे युक्त, अत्यन्त सुगन्धित, मलरहित, शिवस्वरूप तथा अत्यन्त आश्चर्यकारक है । और आपके वचन तथा मनकी जो प्रवृत्ति है वह भी शिवस्वरूप तथा अत्यन्त आश्चर्य करनेवाली है। विशेषार्थ-यहाँ श्री मुनिसुव्रत जिनके शरीर, वचन और मनका माहात्म्य बतलाया गया है। श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकर हैं । तीर्थंकर होनेके कारण उनका शरीर सामान्य मनुष्योंके शरीरकी अपेक्षा कुछ विशेषताओंको लिये हए था । अन्य मनुष्योंके शरीरका रुधिर लाल होता है । इसके साथ ही वह दुर्गन्धित और मल-मूत्र सहित होता है । इसके विपरीत श्री मुनिसुव्रत जिनके शरीरका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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