Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 188
________________ श्री पार्श्व जिन स्तवन १६९ फणोंके मण्डलरूप मण्डपके द्वारा उसी प्रकार वेष्टित कर लिया था जिस प्रकार विराग ( कृष्ण ) संध्यामें बिजलीसे युक्त मेघ पर्वतको वेष्टित कर लेता है । विशेषार्थ-जब पूर्व वैरी कमठके जीव शम्बर नामक देवने ध्यानमग्न भगवान् पार्श्वनाथ पर भयंकर उपसर्ग किया तब पूर्वकृत उपकारके कारण धरणेन्द्र नामक भवनवासी नागकुमार जातिके देवने विक्रिया द्वारा एक नागका रूप बनाया। उस नागके अनेक बड़े-बड़े फण थे। उसने उन फणोंके मण्डलाकार मण्डपके द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ पर छाया कर ली, जिससे भयंकर आँधी और वर्षा आदिका उपसर्ग भगवान पार्श्वनाथको ध्यानसे विचलित नहीं कर सका । श्री पार्व जिन महामना तो थे ही, साथ ही उपसर्ग निवारणमें धरणेन्द्रने भो सहयोग किया था। उस फणामण्डलरूप मण्डपने भगवान् पार्श्वनाथको उसी प्रकार वेष्टित कर लिया था जिस प्रकार काली सन्ध्याके समय बिजलोसे युक्त मेघ पर्वतको वेष्टित कर लेता है । अथवा विविध रंगों वाली सन्ध्याके समय बिजलीसे युक्त मेघ पर्वतको वेष्टित कर लेता है । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोकमें केवल धरणेन्द्रका नाम आया है । पद्मावतीका नाम कहीं नहीं है । अतः उपसर्गके समय पद्मावती देवीने भगवान् पार्श्वनाथको अपने सिर पर विराजमान कर लिया था, ऐसी जो मान्यता है वह सर्वथा निराधार है। इसी गलत मान्यताके आधार पर अपने सिर पर भगवान् पार्श्वनाथको बैठाये हुए पद्मावती देवीकी मूर्तियों के निर्माण की परम्परा पता नहीं कबसे चालू हुई है । जैनागममें स्त्रीको साधुसे सात हाथ दूर रहनेका विधान है । किन्तु आश्चर्य की बात है कि पद्मावतीने अपने सिर पर पार्श्वनाथ भगवान्को कैसे बैठा लिया। स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया निशात्य जो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-जिन्होंने अपने योगरूप तलवार को तीक्ष्ण धारसे दुर्जय मोहरूप शत्रुको नष्ट करके उस आर्हन्त्य पदको प्राप्त किया था, जो अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोक को पूजाके अतिशयका स्थान है । विशेषार्थ-शम्बर नामक देवकृत उपसर्गके अनन्तर भगवान् पार्श्वनाथने परम शुक्लध्यानरूप खड्ग की तीक्ष्ण धारसे मोहरूप शत्रुको नष्ट कर दिया था। यहाँ मोह शब्द उपलक्षण है। अतः मोह शब्दके द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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