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श्री वीर जिन स्तवन
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उपदेश दिया था। उनका उपदेश प्रवचन तीर्थ या आगम तीर्थ कहलाता है । तबसे लेकर आज तक श्री वीर जिनका शासन प्रवर्तमान है । श्री वीर जिनने भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शनादि गुणोंमें अनुशासित ( शिक्षित ) किया था और गुणानुशासनसे अनुशासित भव्य जीवोंका भव नष्ट हो गया था। इसी कारण उनके शासनका विशेष माहात्म्य है । श्री वीर जिनके समयमें उनके शासनका माहात्म्य ज्यवन्त था हो । किन्तु इस कलिकाल ( पंचम काल ) में भी वह जयवन्त है । गणधरादि देव उनके इस शासन वैभवकी स्तुति करते हैं। गणधरादिमें अवधिज्ञान-मनःपर्ययज्ञानरूप तेज विद्यमान रहता है। उन्होंने उस ज्ञान तेजके द्वारा लोकविभु ( लोक स्वामी ) हरिहरादिको महत्त्वहीन कर दिया था। अर्थात् हरिहरादि उनके समक्ष प्रभाहीन हो गये थे । राग-द्वेषादि दोष पीड़ाकारक होनेसे चाबुकके समान हैं। गणधरादि देव इन दोषरूप चाबुकोंके निराकरण करने में समर्थ हैं। ऐसे गणधरादि देवोंके द्वारा श्री वीर जिनके शासनकी स्तुति की जाती है।
उक्त श्लोकमें चार बार विभव शब्द आया है। यहां प्रथम विभवका अर्थ है-माहात्म्य । द्वितीय विभवका अर्थ है-विगतभव ( विनष्ट संसार )। तृतीय विभवका अर्थ है-समर्थ । और चतुर्थ विभवका अर्थ है-विभु (स्वामी)। प्रथम दो विभव शब्दोंका प्रयोग एकवचनमें हुआ है । अन्तिम दो विभव शब्दोंका प्रयोग विभु शब्दके बहुवचनमें हुआ है । तृतीय विभव शब्दके पहले असन शब्द है । यहाँ असनका अर्थ है-निराकरण । अतः 'असनविभवः' का अर्थ हैनिराकरण करने में समर्थ । चतुर्थं विभव शब्दके पहले आसन शब्द है। यहाँ आसनका अर्थ है-त्रिभुवन । अतः 'आसनविभवः' का अर्थ होता है-तीन लोकके स्वामी हरिहरादि । इनको लोकमें स्वामी माना जाता है। इसलिए 'प्रभाकृशासनविभवः' का अर्थ होता है-अपने ज्ञानरूप तेजसे लोकस्वामी हरिहरादिको महत्त्वहीन करनेवाले गणधरादि ।। अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादो द्वितयविरोधान्मुनीश्वरास्याद्वादः ॥३॥
सामान्यार्थ-हे मुनीश्वर ! आपका जो स्याद्वाद है वह निर्दोष है । क्योंकि दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) और इष्ट ( अनुमान ) के द्वारा उसमें कोई विरोध नहीं आता है। इससे भिन्न जो सर्वथा एकान्तवाद है वह स्यावाद नहीं है । वह तो दृष्ट और इष्ट इन दोनोंके द्वारा विरोध आनेके कारण अस्याद्वाद है।
विशेषार्थ-जीवादि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । स्याद्वाद उस अनन्तधर्मात्मक वस्तुके प्रतिपादन करनेका साधन या उपाय है । अनेकान्त और स्याद्वाद
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