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श्री पार्श्व जिन स्तवन
स सत्यविद्यातपसां प्रणायकः समग्रधोरुग्रकुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते
विलोनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः ॥ ५ ॥ ( १३५ )
सामान्यार्थ — जो सत्य विद्याओं और तपस्याओं के प्रणेता हैं, पूर्णबुद्धि ( सर्वज्ञ ) हैं, उग्रवंश रूप आकाशके चन्द्रमा हैं और जिन्होंने मिथ्यादर्शनादि रूप कुमार्ग- दृष्टियों से उत्पन्न विभ्रमोंको नष्ट कर दिया है, वे पार्श्व जिनेन्द्र मेरे द्वारा सदा प्रणाम किये जाते हैं ।
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विशेषार्थ - भगवान् पार्श्वनाथ पूर्णज्ञानी ( सर्वज्ञ ) थे । इस कारण वे समोचीन विद्याओं और तपस्याओंके प्रणेता थे । कोई भी विद्या या ज्ञान सत्य हो सकता है और मिथ्या भी हो सकता है । इसी प्रकार तपस्या भी समीचीन और मिथ्या होती है । मिथ्यादृष्टिका ज्ञान मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दृष्टिका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । अज्ञानपूर्वक किया गया पञ्चाग्नि तप आदि कुतप या मिथ्या तप है और धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानपूर्वक किया गया तप सम्यक् तप या सम्यक् चारित्र है । श्री पार्श्व जिन पूर्ण ज्ञानी थे । इसलिए उन्होंने लोगोंके मिथ्यादर्श - नादिरूप कुमार्ग सम्बन्धी दृष्टियों के विभ्रमोंको दूरकर उन्हें सम्यग्दृष्टि बनाया था । वस्तु सर्वथा नित्य है या सर्वथा क्षणिक है, इत्यादि प्रकारका विभ्रम ( सर्वथैकान्तरूप ज्ञान ) मिथ्यादर्शन के कारण होता है । श्री पार्श्व जिनने अपने उपदेशोंके द्वारा जीवोंके विभ्रमके कारण मिथ्यादर्शनको दूर कर दिया था । इसका तात्पर्य यह है कि भव्य जीव भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा सम्यग्दर्शनादिरूप उपदेश - को प्राप्त करके अनेकान्तदर्शी बनकर सर्वथैकान्तदृष्टिरूप विभ्रम से मुक्त हो गये थे । इस प्रकार श्री पार्श्व जिन सम्यग्दर्शन, सत्य विद्या ( सम्यग्ज्ञान ) और सत्य तप ( सम्यक्चारित्र ) के प्रणेता थे ।
भगवान् पार्श्वनाथके वंशका नाम उग्रवंश था । वे उग्रवंशरूप आकाश के चन्द्रमा थे । उन्होंने अपने द्वारा उग्रवंशको उसी प्रकार प्रकाशित किया था जिस प्रकार चन्द्रमा आकाशको प्रकाशित करता है । ऐसे उक्त गुणोंसे विशिष्ट भगवान् पार्श्वनाथको मैं ( स्तुतिकार ) प्रणाम करता | यहाँ प्रणाम करनेका प्रयोजन यह है कि मैं मोक्षका इच्छुक हूँ और मोक्षको प्राप्ति के लिए श्री पार्श्व जिनकी शरण में आया हूँ । उनके प्रसादसे मुझे मोक्षकी प्राप्ति हो, ऐसी मेरी भावना है।
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