Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 196
________________ श्री वीर जिन स्तवन १७७ आर्यागीति अथवा स्कन्धक छन्द कहते हैं । इसलिए चतुर्थ चरण में 'स' शब्दके प्रयोग मात्रायें और बढ़ जायेंगी तथा छन्दभंग हो जायेगा । त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्त्वाशयप्रणामामहितः । लोकत्रयपरम हितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ - हे भगवन् ! आप सुरों तथा असुरोंसे पूजित हैं । किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवोंके अभक्त हृदयसे प्राप्त होनेवाले प्रणामसे पूजित नहीं हैं । आप तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिए परम हितकारी हैं । और आवरणरहित ज्योति (केवलज्ञान) से प्रकाशमान उज्ज्वल धाम (मोक्षस्थान) को प्राप्त हुए हैं । विशेषार्थ- - जन्म कल्याणक आदि अवसरों पर कल्पवासी आदि चारों प्रकारके देव आकर श्री वीर जिनकी पूजा करते हैं । श्री वीर जिनेन्द्र सुरों (देवों) से ही पूजित नहीं होते हैं किन्तु असुरों (अदेवों) से भी पूजित होते हैं । यहाँ असुर शब्द से मनुष्यों और तिर्यञ्चों का ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् वे गणधर चक्रवर्ती, सिंह आदिसे भी पूजित होते हैं । इसका तात्पर्य यही है कि श्री वीर जिन समवसरण में स्थित समस्त भव्य जीवोंसे पूजित होते हैं । मिथ्यात्वादि परिग्रहको ग्रंथि (गाँठ ) कहते हैं । ऐसी ग्रन्थि जिनके विद्यमान है वे ग्रंथिकसत्त्व ( मिथ्यादृष्टि जीव ) कहलाते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवोंके आशय ( अभक्तचित्त) से होनेवाले प्रणामसे श्री वीर जिन पूजित नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव भले ही ऊपरी प्रणामादिसे भगवान् की पूजा करें, किन्तु श्री वीर जिन उनकी पूजा के पात्र न होकर यथार्थ में सम्यग्दृष्टियोंके ही पूजाके पात्र हैं । यथार्थ तो यह है कि चाहे कोई उनकी पूजा करे या न करे परन्तु वे तो निःस्वार्थभावसे मोक्षमार्गका उपदेश देकर तीनों लोकोंके जीवोंका कल्याण करते हैं । औरा अन्तमें उस मोक्ष धामको प्राप्त कर लेते हैं जो केवलज्ञानरूप ज्योतिसे सद प्रकाशमान रहता है । सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुणभूषणं श्रिया चारुचितम् । मग्नं स्वस्यां रुचि तं जयसि च मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥ ५ । सामान्यार्थ - हे वीर जिन ! आप समवसरण सभामें स्थित भव्य जीवोंको रुचिकर तथा अष्टप्रातिहार्यादिरूप लक्ष्मीसे अच्छी तरहसे पुष्ट या व्याप्त गुणोंके आभूषणको धारण करते हैं । और आप अपने शरीर की कान्तिसे उस मृगलांछन १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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