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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका (चन्द्रमा) को जीतते हैं, जो अपनी कान्तिमें मग्न है और जो सबको सुन्दर लगता है।
विशेषार्थ-यहाँ श्री वीर जिनके आध्यात्मिक और शारीरिक गुणोंको बतलाया गया है। श्री वीर जिन सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी हैं। ये ही उनके आध्यात्मिक गुण हैं। वे इस गुणरूप आभूषणको धारण करते हैं । समवसरण सभामें स्थित भव्य जीव श्री वीर जिनके इन गुणोंको देखकर परम प्रसन्न होते हैं और उन गुणोंकी प्राप्तिके लिए भगवान्की पूजा, वन्दनादि करते हैं । श्री वीर जिनके माक्षमार्गनेतृत्व, कर्मभूभृद्भत्तृत्व और विश्वतत्त्वज्ञातृत्व ये तीन अन्तरंग गुण समवसरण तथा अष्टप्रातिहार्यादिरूप बहिरंग लक्ष्मीसे युक्त होनेके कारण और भी अधिक शोभाको प्राप्त होते हैं । श्री वीर जिनके शरीरकी कान्ति भी अनुपम एवं आश्चर्यजनक है । वे अपने शरीर की कान्तिसे चन्द्रमाकी कान्तिको जीत लेते हैं। यद्यपि चन्द्रमाकी कान्ति या प्रकाश सबको अच्छा लगता है, फिर भी श्री वीर जिनके शरीरकी कान्तिके समक्ष चन्द्रमाकी कान्ति महत्त्वहीन हो जाती है।
त्वं जिन गतमदमायस्तव भावानां मुमुक्षुकामद मायः । श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥ ६ ॥
सामान्यार्थ-मुमुक्षुओंके मनोरथको देनेवाले हे वीर जिन ! आप मद और मायासे रहित हैं। आपका जीवादिपदार्थविषयक माय (केवलज्ञान) अत्यन्त प्रशंसनीय अथवा कल्याणकारी है । आपने लक्ष्मीसे युक्त तथा मायासे रहित उत्कृष्ट यम और दमका उपदेश दिया है ।
विशेषार्थ-यहाँ श्री वीर जिनकी अनेक आध्यात्मिक विशेषताओंको बतलाया गया है । श्री वीर जिन मुमुक्षुओंके लिए इच्छित पदार्थको देनेवाले हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे किसीको कुछ देते हैं । यथार्थमें वे किसीको कुछ नहीं देते हैं । अर्हन्त अवस्थामें उन्होंने भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका जो उपदेश दिया है वह भी किसी स्वार्थ या इच्छाके बिना ही दिया है । अतः 'मुमुक्षुकामद' का तात्पर्य यही है कि यदि कोई मुमुक्ष उनकी शरणमें जाता है तो वह अपनी भक्ति से उपाजित पुण्यके द्वारा इच्छित फलको प्राप्त कर लेता है । श्री वीर जिन मद और मायासे रहित हैं। उन्होंने ज्ञानमद, तपमद, बलमद, रूपमद आदि आठ प्रकारके मदोंको तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंको जीत लिया है । इस श्लोकमें आगत माया शब्दके द्वारा उपलक्षणसे अन्य कषायोंका भी ग्रहण करना चाहिए।
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