Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 199
________________ १८० स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका वहाँ समस्त जीवोंको अभयदानकी प्राप्ति हो जाती थी। अर्थात् समस्त प्राणी स्वतन्त्ररूपसे विचरण करते थे तथा किसीको कोई डरा नहीं सकता था अथवा मार नहीं सकता था। रागादि दोषोंके उपशमको शम कहते हैं। श्री वीर जिन शमके प्रतिपादक वादों ( आगमों) की रक्षा करनेवाले हैं। उन्होंने शमका उपदेश दिया और गणधरोंने शम प्रतिपादक आगमोंकी रचना की। इसलिए श्री वीर जिन शम प्रतिपादक आगमके प्रवर्तक या रक्षक हुए । ऐसे भगवान् महावीरका इस भूमण्डल पर उत्कृष्ट, निर्बाध और उदार विहार हुआ है । उनका विहार न तो किसीकी प्रेरणासे होता था और न किसीके रोकनेसे रुकता था। वह विहार तो भव्य जीवोंके नियोगसे उनके कल्याणके लिए होता था। यही कारण है कि श्री महावीर भगवान्के विहारको उत्कृष्ट, उदार और निर्बाध कहा गया है । उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यही है कि भगवान महावीरने अपने उपदेश द्वारा अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रहरूप सन्मार्गका उपदेश दिया है। इसके साथ ही सर्वथा एकान्त प्रतिपादक उन सभी वादों ( मतों ) का निराकरण किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गके बाधक हैं। बहुगुणसम्पदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नयभक्त्यवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥८॥ (१४३) सामान्यार्थ-हे देव ! जो परमत है वह मधुर वचनोंके विन्यास ( रचना) से सुन्दर होता हुआ भी बहुत गुणोंकी सम्पत्तिसे असकल ( अपूर्ण ) है । किन्तु आपका मत नयोंके भंगरूप अलंकारोंसे अलंकृत है, बहुगुण सम्पत्तिसे मनोज्ञ है, सकल ( पूर्ण ) है और सब ओरसे भद्र ( कल्याण कारक ) है।। विशेषार्थ यहाँ भगवान महावीरके शासनकी अन्य एकान्तवादियोंके शासनसे तुलना की गयी है। चार्वाक, सांख्य, बौद्ध आदि सर्वथैकान्तवादियोंका मत कर्णप्रिय वाक्योंकी रचनासे मनोहर तथा रुचिकर मालूम पड़ता है । चार्वाक का निम्नलिखित वचन कितना मनोहर है यावज्जोवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। अर्थात् जब तक जिओ सुखसे जिओ । पासमें धन न हो तो ऋण लेकर घी, दूध पिओ। ऋण चुकाने की चिन्ता छोड़ो । क्योंकि देहके भस्म हो जाने पर जीवका पुनरागमन नहीं होता है । ऐसी स्थितिमें न कोई ऋण देने वाला रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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