Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 200
________________ श्री वीर जिन स्तवन १८१ है और न कोई ऋण लेने वाला ही रहता है । तब कौन किसको ऋण चुकायेगा । देहात्मवादी चार्वाकका उक्त वचन कितना मधुर है । इसी प्रकार अन्य एकान्तवादियोंके वचन मनोहर होते हुए भी सर्वज्ञत्व, वीतरागित्व और हितोपदेशित्व आदि गुणोंसे रहित होनेके कारण अपूर्ण, सबाध तथा अकल्याणकारी हैं । इसके विपरीत श्री वीर जिनका शासन नैगमादि नयों अथवा द्रव्यार्थिकादि नयोंके भंगरूप अलंकारोंसे अलंकृत है । तात्पर्य यह है कि श्री वीर जिनका शासन अनेकान्त शासन है । वह स्यादस्ति, स्यान्नास्ति इत्यादि रूप सप्त भंगोंके आधारसे परस्पर सापेक्ष नयोंके द्वारा वस्तु तत्त्वका प्रतिपादन करता है । इस प्रकार वह यथार्थ वस्तु तत्त्वके निरूपणमें सर्वथा समर्थ है । तथा प्रत्यक्षादि किसी प्रमाणसे बाधित न होनेके कारण निर्बाध है । उसमें सर्वज्ञत्व, वीतरागित्व और हितोपदेशित्व आदि गुण विद्यमान होनेसे वह बहुगुण सम्पत्तिसे युक्त होनेके कारण पूर्ण है। इसके साथ ही वह समन्तभद्र है-सब ओरसे और सब प्रकारसे सबका कल्याण करनेवाला है। आठवें श्लोकमें समन्तभद्र पद श्लेषात्मक है । अतः यह पद स्वयम्भूस्तोत्रके रचयिता आचार्य समन्तभद्रके नामको भी सूचित करता है । इसके साथ ही समन्तभद्र पद यह भी सूचित करता है कि स्वयम्भूस्तोत्रका दूसरा नाम समन्तभद्र स्तोत्र भी है। इस ग्रन्थकी अनेक प्रतियोंमें इसका दूसरा नाम समन्तभद्र स्तोत्र भी पाया जाता है । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि आचार्य समन्तभद्रके ग्रन्थ प्रायः दो नामोंको लिये हुए हैं । जैसे देवागमका दूसरा नाम आप्तमीमांसा और स्तुतिविद्याका दूसरा नाम जिनशतक है । इनमेंसे पहला नाम ग्रन्थके प्रारंभमें और दूसरा नाम ग्रन्थके अन्तमें मिलता है । ऐसी स्थितिमें यह संभव है कि स्वयम्भूस्तोत्रके अन्तिम श्लोकमें जो समन्तभद्र पद है उसके द्वारा उसका दूसरा नाम समन्तभद्र स्तोत्र सूचित किया गया हो । अतः समन्तभद्रस्तोत्रका अर्थ इसप्रकार करना चाहिए-समन्तभद्र द्वारा रचित स्तोत्र अथवा सबका कल्याण करने वाला स्तोत्र । इस प्रकार स्वयम्भूस्तोत्र की तत्त्वप्रदीपिका नामक यह व्याख्या समाप्त हुई । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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