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श्री वीर जिन स्तवने
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श्री वीर जिनका जीवादि समस्त पदार्थोंको जाननेवाला केवलज्ञान अथवा आगमरूप ज्ञान अत्यन्त श्रेष्ठ है। क्योंकि ऐसा ज्ञान अन्य किसी संसारी जीवमें नहीं पाया जाता है। श्री वीर जिनने सप्रयाम ( उत्कृष्ट यम ) और दमका उपदेश दिया है। अहिंसादि पाँच महाव्रत उत्कृष्ट यम हैं और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों और मनको वशमें करना दम कहलाता है। उनका उपदेश श्रीमत् और अमाय ( माया रहित ) है । अर्थात् यम और दमके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंको हेयोपादेय तत्त्वोंके परिज्ञानरूप लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है अथवा स्वर्ग, अपवर्ग आदिरूप लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त उनके उपदेश द्वारा जीवोंके माया आदि कषायोंका अभाव हो जाता है । अथवा उस उपदेशमें किसी प्रकारका छल-कपट नहीं रहता है। वह तो भव्य जीवोंके कल्याणकी भावनासे दिया जाता है । इसी कारण उनके उपदेशको श्रीमत् और अमाय कहा गया है । गिरिभित्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्रवद्दानवतः । तव शमवादानवतो गतमूजितमपगतप्रमादानवतः ॥ ७॥
सामान्यार्थ-जिस प्रकार पर्वतकी भित्तियोंको विदारण करनेवाले, झरते हुए मदके दानी और उत्तम जातिके हाथीका गमन होता है, उसी प्रकार परम अहिंसादान (अभयदान ) के दानी और शमवादों ( आगमों) के रक्षक आपका उत्कृष्ट विहार हुआ है।
विशेषार्थ-यहाँ हाथीका दृष्टान्त देकर भगवान् महावीरके विहारका वर्णन किया गया है । हाथीके गण्डस्थलसे सदा मद झरता रहता है । इस कारण हाथीको झरते हुए मदका दानो कहा गया है । हाथी जंगलमें स्वतन्त्ररूपसे गमन करता हुआ चला जाता है । यदि उसके मार्ग में पर्वत आ जाता है और वह हाथीके गमनमें बाधक बनता है तो हाथी पर्वतकी दीवालोंको गण्डस्थलकी टक्करसे चूर-चूर कर देता । यह बात सब हाथियोंमें नहीं होती है, किन्तु जो हाथी श्रीमत् ( उत्तम जातिका ) होता है उसीमें उक्त विशेषता पाई जाती है। इस प्रकारके हाथीका जो गमन होता है वह स्वाधीन होता है । और उसके गमनमें कोई भी रुकावट नहीं डाल सकता है।
इसी प्रकार भगवान् महावीरका भी इस भूमण्डल पर स्वतन्त्र, उत्कृष्ट और उदार विहार हुआ है। उक्त श्लोकमें 'अपगतप्रमादानवतः' पद आया है । यहाँ प्रमाका अर्थ है-प्र (प्रकृष्ट ) मा ( हिंसा ) प्रमा । अर्थात् प्रकृष्ट हिंसा । अतः अपगतप्रमाका अर्थ है-अहिंसा ( अभयदान )। भगवान् महावीर अहिंसा अथवा अभयका दान करनेवाले हैं। जहाँ-जहाँ श्री वीर जिनका विहार होता था वहाँ
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