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________________ श्री वीर जिन स्तवने १७९ श्री वीर जिनका जीवादि समस्त पदार्थोंको जाननेवाला केवलज्ञान अथवा आगमरूप ज्ञान अत्यन्त श्रेष्ठ है। क्योंकि ऐसा ज्ञान अन्य किसी संसारी जीवमें नहीं पाया जाता है। श्री वीर जिनने सप्रयाम ( उत्कृष्ट यम ) और दमका उपदेश दिया है। अहिंसादि पाँच महाव्रत उत्कृष्ट यम हैं और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों और मनको वशमें करना दम कहलाता है। उनका उपदेश श्रीमत् और अमाय ( माया रहित ) है । अर्थात् यम और दमके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंको हेयोपादेय तत्त्वोंके परिज्ञानरूप लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है अथवा स्वर्ग, अपवर्ग आदिरूप लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । इसके अतिरिक्त उनके उपदेश द्वारा जीवोंके माया आदि कषायोंका अभाव हो जाता है । अथवा उस उपदेशमें किसी प्रकारका छल-कपट नहीं रहता है। वह तो भव्य जीवोंके कल्याणकी भावनासे दिया जाता है । इसी कारण उनके उपदेशको श्रीमत् और अमाय कहा गया है । गिरिभित्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्रवद्दानवतः । तव शमवादानवतो गतमूजितमपगतप्रमादानवतः ॥ ७॥ सामान्यार्थ-जिस प्रकार पर्वतकी भित्तियोंको विदारण करनेवाले, झरते हुए मदके दानी और उत्तम जातिके हाथीका गमन होता है, उसी प्रकार परम अहिंसादान (अभयदान ) के दानी और शमवादों ( आगमों) के रक्षक आपका उत्कृष्ट विहार हुआ है। विशेषार्थ-यहाँ हाथीका दृष्टान्त देकर भगवान् महावीरके विहारका वर्णन किया गया है । हाथीके गण्डस्थलसे सदा मद झरता रहता है । इस कारण हाथीको झरते हुए मदका दानो कहा गया है । हाथी जंगलमें स्वतन्त्ररूपसे गमन करता हुआ चला जाता है । यदि उसके मार्ग में पर्वत आ जाता है और वह हाथीके गमनमें बाधक बनता है तो हाथी पर्वतकी दीवालोंको गण्डस्थलकी टक्करसे चूर-चूर कर देता । यह बात सब हाथियोंमें नहीं होती है, किन्तु जो हाथी श्रीमत् ( उत्तम जातिका ) होता है उसीमें उक्त विशेषता पाई जाती है। इस प्रकारके हाथीका जो गमन होता है वह स्वाधीन होता है । और उसके गमनमें कोई भी रुकावट नहीं डाल सकता है। इसी प्रकार भगवान् महावीरका भी इस भूमण्डल पर स्वतन्त्र, उत्कृष्ट और उदार विहार हुआ है। उक्त श्लोकमें 'अपगतप्रमादानवतः' पद आया है । यहाँ प्रमाका अर्थ है-प्र (प्रकृष्ट ) मा ( हिंसा ) प्रमा । अर्थात् प्रकृष्ट हिंसा । अतः अपगतप्रमाका अर्थ है-अहिंसा ( अभयदान )। भगवान् महावीर अहिंसा अथवा अभयका दान करनेवाले हैं। जहाँ-जहाँ श्री वीर जिनका विहार होता था वहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004001
Book TitleSwayambhustotra Tattvapradipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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