Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 195
________________ १७६ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका ____ अनन्तधर्मात्मक वस्तुकी ठीक-ठीक व्यवस्था करनेके कारण स्याद्वाद सुव्यवस्थित है । सुव्यवस्थित होनेके साथ-साथ वह व्यावहारिक भी है । स्याद्वाद नित्य व्यवहारकी वस्तु है । इसके बिना लोकव्यवहार नहीं चल सकता है । जितना भी लोकव्यवहार होता है वह सब आपेक्षिक होता है और आपेक्षिक व्यवहारके कथनका नाम ही स्याद्वाद है। विश्वके प्रत्येक तत्त्व पर स्याद्वाद मुद्रा अंकित है। भगवान् महावीरने इसी स्याद्वादका उपदेश दिया था। आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसामें स्याद्वादको केवलज्ञानके समान बतलाया है स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ।। १०५ ।। स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सर्वतत्त्व प्रकाशक हैं। उनमें भेद केवल इतना है कि केवलज्ञान प्रत्यक्षरूपसे सब तत्त्वोंको जानता है और स्याद्वाद परोक्षरूपसे सब तत्त्वोंको जानता है। अतः केवलज्ञान और स्याद्वाद दोनों ही पूर्णदशी हैं । यहाँ स्याद्वादको श्रुतज्ञानके रूपमें बतलाया गया है । ___ भगवान् महावीरका स्याद्वाद निर्दोष है । क्योंकि उसमें न तो प्रत्यक्ष प्रमाणसे विरोध आता है और न अनुमान, आगम आदि परोक्ष प्रमाणोंसे विरोध आता है । तात्पर्य यह है कि स्याद्वादके द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्त्व किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं है । वस्तु सर्वथा नित्य है अथवा सर्वथा क्षणिक है, इत्यादि प्रकारका जो सांख्य, बौद्ध आदिका कथन है वह स्याद्वाद नहीं है, किन्तु सर्वथैकान्तवाद है । क्योंकि उनके कथनमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रमाणोंसे विरोध आता है । वस्तुमें सर्वथा नित्यत्व या क्षणिकत्वकी सिद्धि किसी भी प्रमाणसे नहीं होती है । इसके विपरीत दोनों प्रमाणोंसे उसमें विरोध ही आता है । यही कारण है कि एकान्तवादियोंका कथन स्याद्वाद नहीं है, वह तो अस्याद्वाद है । एकान्तवादियोंके कथनमें स्यात् शब्दकी अपेक्षा न होनेके कारण उसे अस्याद्वाद कहा गया है। ___मुद्रित प्रतियोंमें इस श्लोकके चतुर्थ चरणमें ‘स द्वितयविरोधात्' ऐसा पाठ है। यहाँ 'स' शब्दका प्रयोग गलत एवं अनावश्यक है। यहाँ 'स' शब्द होनेसे तृतीय चरणके अन्तमें 'स्याद्वादो' ऐसा ओकारान्त शब्द न होकर 'स्याद्वादः' ऐसा शब्द होगा। क्योंकि व्याकरणके नियमानुसार 'स' शब्दसे पहलेके शब्दके अन्तमें विसर्गके स्थानमें 'ओ' नहीं होता है । अतः 'द्वितयविरोधात्' ऐसा पाठ शुद्ध तथा उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त इस श्लोकमें प्रयुक्त छन्दके अनुसार भो 'स' शब्दका प्रयोग गलत है इस श्लोकमें आर्यागीति (स्कन्धक) नामक छन्द है। जिसके विषम चरणोंमें १२-१२ और समचरणोंमें २०-२० मात्रायें होती है उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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