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श्री वोर जिन स्तवन
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जैसे - ' स्यादस्त्येव घटः ' । यहाँ स्यात् के साथ एव शब्दके प्रयोगसे संशय होना तो दूर रहा, उल्टा वस्तु के विषयमें दृढ़ निश्चय हो जाता है कि घट स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है । किसी वाक्य में एव शब्दका प्रयोग न होने पर भी उसका अभिप्राय वहाँ भी अवश्य विद्यमान रहता है ।
स्याद्वाद अनेकधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन करता है । किन्तु उसके द्वारा -वस्तु के अनेक धर्मो का प्रतिपादन क्रमशः होता है । स्याद्वाद एक समयमें मुख्य रूप - से एक धर्मका ही प्रतिपादन करता है और शेष धर्मोका गौणरूपसे द्योतन करता है | जब कोई कहता है कि 'स्यादस्ति घट :'- — घट कथंचित् है तो यहाँ स्यात् शब्द बतलाता है कि घटका अस्तित्व किस अपेक्षासे है । अर्थात् स्त्ररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा घटका अस्तित्व है । इसके साथ ही वह यह भी बतलाता है। कि घट सर्वथा अस्तिरूप ही नहीं है, किन्तु अस्तित्व धर्मके अतिरिक्त उसमें
स्तित्व आदि अनेक धर्म भी रहते हैं । उन्हीं अनेक धर्मोकी सूचना स्यात् शब्दसे मिलती है । बात यह है कि वस्तु अनेक दृष्टिकोणोंसे देखी जा सकती है और उन अनेक दृष्टिकोणोंका प्रतिपादन स्याद्वादके द्वारा किया जाता है । स्याद्वाद समग्र वस्तु पर एक ही धर्मके पूर्ण अधिकारका निषेध कि वस्तु पर सब धर्मोका समानरूपसे अधिकार है । कि जिस धर्म के प्रतिपादनकी जिस समय विवक्षा होती है 'पकड़ लेते हैं और शेष धर्मोंको ढीला कर देते हैं । जैसे गोपी मथाने की रस्पीके एक छोरको खींचतो है और दूसरे छोरको ढोल देती है । इस प्रकार वह रस्सीके आकर्षण और शिथिलीकरण के द्वारा दधिका मन्थन कर इष्ट तत्त्व घृतको प्राप्त कर लेती है । इसी प्रकार स्याद्वादनीति भी एक धर्म के आकर्षण और शेष धर्मोके शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थकी सिद्धि करती है । इसी विषय में आचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थं सिद्धघुपाय में कहा हैएकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥
करता है । वह कहता है विशेषता केवल इतनी है
उस समय उस धर्मको दधिमन्थन करनेवाली
स्याद्वाद विभिन्न दृष्टिकोणोंका समन्वय करता है | यदि किसी वस्तुको 'पूर्णरूपसे समझना है तो इसके लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से उसका निरीक्षण करना आवश्यक है । किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणोंसे विचार करनेका नाम ही स्याद्वाद है और एक दृष्टिकोणसे विचार करने का नाम एकान्तवाद है । एकान्त-वादी अपने दृष्टिकोणको पूर्ण सत्य मानकर अन्य लोगोंके दृष्टिकोणोंको मिथ्या बतलाते हैं । मतभेदों तथा संघर्षोंका कारण यही एकान्तदृष्टि है । श्री वीर जिनस्याद्वाद सिद्धान्त विभिन्न मतभेदोंको दूर करने में सर्वथा समर्थ है । इस प्रकार स्याद्वाद हमारे सामने समन्वयका मार्ग उपस्थित करता है ।
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