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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
और अन्तरायका भी ग्रहण करना चाहिए। योगाभ्यास करते-करते परम प्रकर्षको प्राप्त शुक्ल ध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोंका नाश हो जानेपर श्रीपार्श्व जिनने अर्हन्त पदको प्राप्त कर लिया था । अर्हन्त पद अचिन्त्यनीय है । अल्पज्ञ प्राणी इसके विषय में विचार हो नहीं कर सकते । समवसरणादि विभूतिके कारण अर्हन्त पद सब प्राणियोंके लिए आश्चर्यजनक है तथा त्रिलोकवर्ती शत इन्द्रोंके द्वारा पूजित होने के कारण पूजाके अतिशय ( परम प्रकर्ष ) का स्थान है ।
यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः ।
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वनौकसः स्वश्रमबन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं
प्रपेदिरे ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ - जिन पार्श्वनाथ भगवान्को घातिकर्मचतुष्टयरूप पापसे रहित, मोक्षमार्ग के उपदेशक और समस्त लोक के ईश्वर के रूपमें देखकर वे वनवासी तपस्वी भी भगवान् पार्श्वनाथ की शरणको प्राप्त हुए थे, जो अपने श्रममें निष्फलबुद्धि हो गये थे और जो पार्श्व जिनके समान होने के इच्छुक थे ।
विशेषार्थ - यहाँ यह बतलाया गया है कि श्री पार्श्व जिनके माहात्म्यसे प्रभावित होकर अन्य मतावलम्बी तपस्त्री भी भगवान् पार्श्वनाथ की शरणको प्राप्त हुए थे । श्री पार्श्व जिन चार घातिया कर्मोंका क्षय करके ईश्वर (त्रिलोक पूज्य ) हो गये थे तथा समवसरण में विराजमान होकर मोक्षमार्गका उपदेश करने लगे थे । क्योंकि मोक्षमार्ग पर चलनेसे प्राणियोंके समस्त रागादि विकारोंका उपशम हो जाता है और अन्तमें परिभ्रमणरूप संसारका भी अन्त हो
है ।
भगवान् पार्श्वनाथके समय में अन्यमतावलम्बी वनवासी तपस्वी भी अपनेअपने मत के अनुसार तपस्या करते थे । कोई पञ्चाग्नि तपमें निमग्न था, कोई एक हाथ ऊपर उठाकर तप करता था और कोई जलके बीच में खड़े होकर तपस्या करता था । इत्यादि प्रकार की विविध तपस्याओं को करते हुए भी उन्हें किसी फलकी प्राप्ति नहीं हुई थी। इस प्रकार वे अपने तपस्या रूप श्रम (प्रयास) में निष्फल हो गये थे । किन्तु वे भगवान् पार्श्वनाथ के समान ही निष्कलंक बना चाहते थे । उनके मन में ऐसी इच्छा हुई कि हम भी श्री पार्श्व जिन द्वारा बतलाये हुए मार्ग पर चलकर उन्हीं जैसा बन जावें । यही सब सोचकर अन्य मतावलम्बी अनेक साधु अपने मिथ्या तपको छोड़कर भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी बन गये थे । भगवान् पार्श्वनाथका ऐसा अचिन्त्य माहात्म्य था ।
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