________________
( २३ ) श्री पार्श्व जिन स्तवन तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणैः
प्रकीर्णभीमाशनिवायुवृष्टिभिः । बलाहकैर्वैरिवशैरूपद्रितो
महामना यो न चचाल योगतः ॥ १॥ सामान्यार्थ-तमाल वृक्षके समान नील वर्णयुक्त, इन्द्रधनुषों सम्बन्धी बिजलीरूपी डोरियोंसे सहित, भयंकर वज्र, आँधी और वर्षाको बिखेरनेवाले तथा शत्रुके वशीभूत मेघोंके द्वारा उपद्रव ग्रस्त होने पर भी जो महामना पार्श्व जिन योगसे विचलित नहीं हुए।
विशेषार्थ-भगवान् पार्श्वनाथका जन्म वाराणसीमें हुआ था। श्री पार्श्व जिन कुमारावस्थामें एक बार अपने मित्रोंके साथ भ्रमण करते हुए वाराणसीके निकट एक उपवनमें पहुंचे। वहाँ पूर्वभवोंका वैरी कमठका जीव एक तपस्वीके रूपमें पञ्चाग्नि तप कर रहा था । चारों ओर अग्नि जलाकर तथा उसके बीचमें बैठकर और ऊपर सूर्य की ओर दृष्टि करके जो तप किया जाता है उसे पञ्चाग्नि तप कहते हैं । पञ्चाग्नि तपके लिए जो लकड़ियाँ जल रही थीं उनमें से एक लड़कीके भीतर बैठे नाग और नागिन भी जल रहे थे। श्री पार्श्व जिनने अवधिज्ञानसे इस बातको जानकर तपस्वीसे कहा कि हिंसामय तप क्यों कर रहे हो। इस लकड़ीके अन्दर नाग और नागिन जल रहे हैं। इस बातको सुनकर तपस्वी क्रोधित होकर बोला कि ऐसा नहीं हो सकता है। आपने कैसे जाना कि इसके भीतर नाग और नागिन हैं। तब कुल्हाड़ी मगाकर लकड़ीको काटा गया और पावकुमारने जलती हुई लकड़ीसे अधजले नाग-नागिन को बाहर निकाला। तथा कुछ क्षण बाद पार्श्वनाथके सान्निध्यमें नाग-नागिनकी मृत्यु हो गई । संभवतः इस कारण वे मृत्युके बाद भवनवासी देवोंमें धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । क्योंकि श्री वादिराजसूरि रचित पार्श्वनाथचरितमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि पार्श्वकुमारने अर्धदग्ध नाग-नागिनको णमोकार मन्त्र सुनाया था । अन्य किसी प्राचीन
'. ज्वलदतिबहलाग्निमध्यवर्ती । रविगतदृष्टितया तपश्चरिष्णुः ।। ६५ ।।
-पार्श्वनाथचरित दशम सर्ग
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org