________________
१५१
श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन कहना पदार्थके पूर्ण ज्ञानके बिना सम्भव नहीं है । इसलिए जो यथार्थवक्ता है वह श्रेष्ठ वक्ता और सर्वज्ञ होता है। यतः श्री मुनिसुव्रत जिन यथार्थवक्ता हैं, अतः वे श्रेष्ठत्रक्ता और सर्वज्ञ हैं।। दुरितमलकलङ्कमष्टकं
निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । अभवदभवसौख्यवान् भवान्
__ भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ ५॥ (११५) सामान्यार्थ-हे मुनिसुव्रत जिन ! आप अनुपम योगबलसे अष्ट प्रकारके कर्ममलकलंकको जलाते हुए संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यको प्राप्त हुए हैं। अतः आप मेरे भी संसारकी उपशान्तिके लिए निमित्तभूत होवें।
विशेषार्थ-मुनिसुव्रतनाथ भगवान्ने सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यानकी शक्तिसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोको नष्ट कर दिया है । आठ प्रकारके कर्म आत्माके शुद्ध स्वभावके प्रच्छादक होनेसे मलरूप या पापरूप हैं । इस कर्ममलके द्वारा आत्मा स्वभावच्युत होनेके कारण कलंकित हो जाता है। किन्तु वही कलंकित आत्मा शुक्ल ध्यानके द्वारा कर्ममलकलंक रहित हो जाता है। श्री मुनिसुव्रत जिन कर्ममल रहित हैं तथा अतीन्द्रिय सुख अथवा मोक्ष सुखके भोक्ता हैं । संसारके प्राणियोंका जो सुख है वह इन्द्रियजन्य सुख है। किन्तु सर्व कर्मोका क्षय हो जानेपर जो सुख उत्पन्न होता है वह अतीन्द्रिय सुख अथवा मोक्षसुख कहलाता है । वह सुख अनन्त और निराकुल होता है।
यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि हे मुनिसुव्रत जिन ! आपने तो कर्मकलंकको नष्ट करके मोक्षसुखको प्राप्त कर लिया है । अब आप मेरे संसारकी उपशान्तिके लिए भी निमित्तभूत हों, ऐसी मेरी भावना है । मैं चाहता हूँ कि आपका निमित्त पाकर मेरी आत्मा में भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जिससे मैं अष्ट कर्मोंको नष्ट करके मोक्षसुखका पात्र बन सकूँ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org