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स्वयम्भू स्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका
मूलाचार में यह भी बतलाया गया है कि अब्रह्म ( मैथुन ) के कारणरूप १० विकल्प होते हैं जो इस प्रकार हैं - १. स्त्रीसंसर्ग, २. प्रणीतरसभोजन, ३. गंधमाल्यसंस्पर्श, ४. शयनासन, ५. आभूषण, ६. गीतवादित्र, ७. अर्थ संप्रयोग, ८. कुशीलसंसर्ग, ९. राजसेवा और १० रात्रिसंचरण । इन दस बातोंके द्वारा शीलकी विराधना होती है । अतः इनका त्याग करना चाहिए । शीलके विषय में विस्तार से विचार करने के लिए मूलाचारमें शीलगुणाधिकार नामक एक पृथक् अधिकार है ।
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छहढाला एक टिप्पण में शीलके भेद इस प्रकार बतलाये गये हैं- मैथुन कर्मके १० भेद हैं तथा उनमेंसे प्रत्येककी १० अवस्थायें होती हैं । इनका परस्परमें गुणा करनेपर १० x १० = १०० भेद होते हैं । वह मैथुन ५ इन्द्रियोंसे किया जाता है । अतः १०० ५ = ५०० भेद हुए । इनमें तीन योगोंसे गुणा करने पर ५०० × ३ = ४५०० भेद हुए। ये भेद जाग्रत तथा स्वप्न दोनों अवस्थाओंमें होनेसे ४५०० x २ = ९००० भेद हुए । ये भेद चेतन तथा अचेतन दोनों प्रकारकी स्त्रियों में होनेसे ९००० x २ = १८००० होते हैं । ये सब कुशीलके भेद हैं और उक्त सब भेदोंका त्याग हो जाने पर शीलके अठारह हजार भेद होते हैं । ये भेद समझने में सरल हैं ।
त्रिदशेन्द्रमौलिमणिरत्नकिरणविसरोपचुम्बितम्
पादयुगलममलं भवतो विकसत्कुशेशयदलारुणोदरम् ॥ ३ ॥ नखचन्द्ररश्मिकवचातिरुचिरशिखराङ्गुलिस्थलम्
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स्वार्थनियतमनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ - हे नेमि जिन ! जो अपने हितसाधनमें दत्तचित्त हैं, जो उत्तम बुद्धिके धारक हैं और जो स्तुतिरूप मंत्र से मुखर ( वाचाल ) हैं, ऐसे गणधरादि बड़े-बड़े ऋषि आपके उस चरण युगलको प्रणाम करते हैं, जो चरण युगल देवेन्द्रोंके मुकुटों की मणियों और रत्नोंकी किरणों के प्रसारसे चुम्बित है, निर्मल है, जिनका तलभाग विकसित कमल दलके समान रक्तवर्ण है और जिनकी अँगुलियों के उन्नत प्रदेशका अग्रभाग नखरूप चन्द्रमाकी किरणों के परिमण्डलसे अत्यन्त सुन्दर मालूम हो रहा है ।
विशेषार्थ - यहाँ श्री नेमि जिनके चरणयुगलकी विशेषताको बतलाया गया है | मोक्षरूप स्वार्थ के साधन में जिनका मन लगा हुआ है और जो उत्तम बुद्धिके धारक हैं ऐसे गणधरादि महर्षि ' णमो णेमि जिणाणं' इस सात अक्षरवाले मंत्रका अथवा सामान्य स्तुतिरूप मंत्रका पाठ करते हुए श्री नेमि जिनके पवित्र चरण
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