Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 180
________________ श्री नेमि जिन स्तवन १६१ गणधरादि जिनोंके नायक थे। इतना हो नहीं, वे अनवद्य ( निर्दोष ) विनय और दमके तीर्थनायक थे । ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ( आचार्य आदिके प्रति समुचित व्यवहार करना ) के भेदसे विनयके चार भेद होते हैं। पञ्चेन्द्रियोंको वशमें करने रूप दम पाँच प्रकारका है। श्री नेमि जिनने निर्दोष विनय और दमका प्रतिपादन किया था। अतः वे निर्दोष विनय और दमरूप आगमतीर्थके नायक हैं। वे शीलके समुद्र हैं। अर्थात् अठारह हजार शोलके भेद उनमें पूर्णताको प्राप्त हुए हैं। ऐसे श्री नेमि जिनेन्द्र अपनी केवलज्ञानरूप विस्तृत किरणोंके द्वारा समस्त लोक और अलोकको प्रकाशित करके (जान करके) अन्तमें विभव (संसारमुक्त) हुए हैं। स्तुतिकारने बाईसवें तीर्थङ्करका नाम अरिष्टनेमि बतलाया है । संस्कृत टीकाकारने अरिष्टनेमि शब्दका अर्थ इस प्रकार किया है-'अरिष्टानां कर्मणां नेमिश्चक्रधारा ।' अर्थात् कर्मों के लिए जो चक्रधारा ( चक्रकी धार ) है । इसका तात्पर्य यह है कि उन्होंने समाधिचक्रके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोंका नाशकर दिया है, ऐसे थे श्री अरिष्टनेमि जिनेन्द्र । वर्तमानमें उनका नाम नेमिनाथ प्रचलित है। यहाँ शीलके अठारह हजार भेदोंको जान लेना आवश्यक है। छहढालामें बतलाया गया है कि शीलके अठारह हजार भेद होते हैं।' मूलाचार में विस्तारसे इन भेदोंका विवेचन किया गया है जो इस प्रकार है ३ करणोंका ३ योगोंके द्वारा गुणा करने पर ३ x ३ = ९ भेद हुए । पुनः ४ संज्ञाओं से ९ में गुणा करने पर ९४४ = ३६ भेद हए । ३६ में ५ इन्द्रियोंसे गुणा करनेपर ३६४५ = १८० भेद हुए। पुनः १८० में पृथिवी काय आदि १० कायों (पृथिवी आदि ४, वनस्पतिकाय २(प्रत्येक और साधारण) त्रसकाय ४) से गुणा करने पर १८०४ १० = १८०० भेद हुए। इनमें उत्तमक्षमादि १० धर्मोसे गुणा करने पर १८००x१० = १८००० भेद हुए। इस प्रकार शीलके अठारह हजार भेद होते हैं । १. अठदशसहस विध शील धर चिद्ब्रह्ममें नित रमि रहैं । -छहढाला ६/१ २. जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य।। अण्णोणेहिं अभत्था अट्ठारहसीलसहस्साई ॥ -मूलाचार, शीलगुणाधिकार गाथा २ योगा करणानि संज्ञा इन्द्रियाणि म्वादयः श्रमणधर्माश्च । अन्योन्यै रम्यस्ता अष्टादशशीलसहस्राणि ॥ -संस्कृत छाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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