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श्री नमि जिन स्तवन
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अस्तित्व धर्म मुख्य हो जाता है और कभी गौण । यही बात अन्य धर्मों के विषय में
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भी जान लेना चाहिए । इन अनेक का प्रतिपादन स्याद्वादके द्वारा होता है । स्याद्वाद वचनरूप है और नय ज्ञानरूप है । अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है । वक्ता अस्तित्व आदि धर्मोका प्रतिपादन करने के लिए स्याद्वादरूप वचनका आश्रय लेता है । स्यात्का अर्थ है कथंचित् और वादका अर्थ है कथन करना । जब किसी धर्मक कथन किसी अपेक्षासे किया जाता है तो वह कथन स्याद्वाद कहलाता है । जैसे यह वस्तु स्वरूपादिचतुष्टय की अपेक्षासे अस्तिरूप है और पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षासे नास्तिरूप है, इस प्रकारका कथन स्याद्वाद है । स्याद्वाद वस्तु के अनन्त धर्मोमेंसे एक समय में एक धर्मका प्रतिपादन करता है । अस्तित्व आदि प्रत्येक धर्मका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षासे सात प्रकारसे किया जाता है । सात प्रकारसे प्रत्येक धर्मके प्रतिपादन करनेको शैलीका नाम सप्तभंगी है । अर्थात् एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है ।" वस्तुमें अनन्त धर्म पाये जाते हैं । इसलिए उन अनन्त धर्मोकी अपेक्षासे वस्तु में अनन्त सप्तभंगियाँ भी बन सकती हैं ।
अस्तित्व आदि प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे भंग सात हो होते हैं, सातसे न कम होते हैं और न अधिक । वे सात भंग इस प्रकार हैं- १ स्यादस्ति, २ स्यान्नास्ति, ३ स्यादस्तिनास्ति, ४ स्यादवक्तव्य, ५ स्यादस्ति अवक्तव्य, ६ स्यान्नास्ति अवक्तव्य और ७ स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य |
उक्त सात भंगोंमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन मूल भंग हैं और शेष चार संयोगजन्य भंग हैं। क्योंकि ये मूल भंगों के संयोगसे बनते हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है, कि भंग सात ही क्यों होते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है
तत्त्व जिज्ञासु वस्तु तत्त्वके विषय में सात प्रकारके प्रश्न करता है । सात प्रकार के प्रश्न करनेका कारण उसको सात प्रकारको जिज्ञासायें हैं । सात प्रकारकी जिज्ञासाओं का कारण उसके सात प्रकारके संशय हैं और सात प्रकार के संशयोंका कारण उनके विषयभूत वस्तुनिष्ठ सात प्रकारके धर्म हैं । यतः वस्तुनिष्ठ सत्त्व, एकत्व, नित्यत्व आदि धर्मोके विषय में सात प्रकारके प्रश्न होते हैं, अतः उनका उत्तर भी सात प्रकारसे दिया जाता है और ये सात प्रकारके उत्तर सप्तभंगी कहलाते हैं ।
१. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्त्वन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी ।
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- तत्त्वार्थवार्तिक १/६
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