Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 165
________________ १४६ स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका (पापों ) को भस्म कर दिया था, मैं उन कृतकृत्य और शल्य रहित जिनसिंह ( जिन श्रेष्ठ ) श्री मल्लि जिनेन्द्रकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ। विशेषार्थ-आभ्यन्तर तपके छह भेद बतलाये गये हैं। उनमें शुक्लध्यान नामका तप सर्वोत्कृष्ट तप है । यह तप अग्निके समान है। जिस प्रकार अग्नि अपरिमित ईंधनके समूहको भस्म कर देती है, उसी प्रकार शक्लध्यान भी अनन्त कर्मपुंजको भस्म कर देता है । कर्मपरमाणु अनन्त हैं । उनका अन्त करना सरल नहीं है। ऐसे अष्ट कर्मरूप पापोंको शुक्लध्यानरूप अग्नि भस्म कर देती है। शुक्लध्यानके चार भेद हैं। उनमेंसे पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ध्यान द्वारा चार घातिया कर्मोंका नाश होता है । तथा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान द्वारा अघातिया कर्मोंका नाश होता है । श्री मल्लि जिन कृतकृत्य हैं। उन्हें जो कुछ करना था उसे कर चुके हैं । उनका लक्ष्य संसारका उच्छेद करना था, उस लक्ष्यको वे प्राप्त कर चुके हैं । वे माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित हैं। तथा इन्द्रियों और कषायोंको जीतनेवाले साधुओंमें सिंहके समान श्रेष्ठ हैं । मैं ऐसे मल्लि जिनेन्द्र की शरणको प्राप्त हुआ हूँ। संभवतः मोहरूप मल्लको जीतनेके कारण इनका नाम मल्लि जिन हुआ है। यहाँ शल्य शब्दके अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक है । शल्य काँटेके समान होती है जो हृदयमें चुभती रहती है। किसी मनुष्यके पैरमें कांटाके चुभ जाने पर जब तक काँटा निकल न जाय तब तक वह मनुष्य शान्तिका अनुभव नहीं कर सकता है। इसी प्रकार व्रती पुरुषको अपनी मानसिक स्थितिको ठीक रखनेके लिए शल्योंका त्याग करना आवश्यक है । तत्त्वार्थसूत्रमें बतलाया गया है कि जो शल्य रहित है वह व्रती होता है । शल्य तीन हैं-माया शल्य, मिथ्यात्व शल्य और निदान शल्य । व्रतोंके पालनमें कपट करना माया शल्य है। व्रतों पर श्रद्धा न रखना मिथ्यात्व शल्य है। और व्रतोंके फलस्वरूप भोगोंकी लालसा करना निदान शल्य है। १. निःशल्यो व्रती। -तत्त्वार्थसूत्र ७/१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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