Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 164
________________ श्री मल्लि जिन स्तवन १४५ मालूम पड़ती थी । वह ऐसी प्रतीत होतो थी मानों मन्द मन्द हाससे अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रही हो । देवरचित खिले हुए कमलोंको ही पृथिवीका मन्दमन्दहास समझना चाहिए इस प्रकार जिनके समक्ष एकान्तवादी विवाद नहीं करते थे और जिनके विहार के समय पृथिवी अत्यन्त रमणीक हो जाती थी, मैं ऐसे मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ । यस्य समन्ताज्जिनशिशिरांशोः शिष्यक साधुग्रहविभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जननसमुद्र त्रासितसत्त्वो तरणपथोऽग्रम् ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ - जिन मल्लि जिन रूप चन्द्रमाके चारों ओर शिष्यसाधुरूप ग्रहों ( ताराओं ) का विभव ( ऐश्वर्य ) था और जिनका अपना तीर्थ ( शासन ) भी संसार समुद्र से भयभीत प्राणियोंको पार उतरनेके लिए प्रधान मार्ग था, मैं उन मल्लि जिनेन्द्रकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ । विशेषार्थ - यहां श्री मल्लि जिनको चन्द्रमाके समान बतलाया गया है । जिस प्रकार शिशिरांशु ( चन्द्रमा की किरणें शीतल होती हैं, उसी प्रकार श्री मल्लि जिनकी वचनरूप किरणें वस्तुस्वरूपकी प्रकाशक होनेसे संसार - तापको शान्त करनेके कारण शीतल थीं । तथा जिस प्रकार चन्द्रमाके चारों ओर ताराओं का वैभव विद्यमान रहता है-चन्द्रमा ताराओंसे घिरा रहता है, उसी प्रकार श्री मल्लि जिनके चारों ओर अपने शिष्यरूप साधुओं ( मुनियों अथवा भव्य जीवों) का वैभव विद्यमान था - वे चारों ओरसे प्रचुर परिमाण में शिष्यरूप साधुओं के समूहसे घिरे रहते थे । और जिनका धर्मतीर्थ या शासन भी संसार के दुःखोंसे भयभीत प्राणियोंको संसार - समुद्रसे पार उतरने के लिए श्रेष्ठ मार्ग था । अर्थात् श्री मल्लि जिनके धर्मतीर्थ के द्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्गपर चलकर भव्य जीव संसारके दुःखोंसे मुक्त हो जाते थे । मैं ऐसे मल्लि जिनेन्द्रकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ । यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निनमनन्तं दुरितमधाक्षीत् । तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥ ५ ॥ (११०) सामान्यार्थ - जिनके शुक्लध्यान स्वरूप श्रेष्ठ तप रूप अग्निने अनन्त दुरित १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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