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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका वस्तु स्वरूपका ‘स्यात्' पद पूर्वक प्रतिपादन करनेवाली जिनकी वाणी भी भव्य जीवोंको प्रसन्न करती है। मैं ऐसे मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ।
विशेषार्थ-भगवान् मल्लिनाथका शरीर अत्यन्त सुन्दर था। वह ऐसा मालम पड़ता था मानों स्वर्णसे ही बनाया गया हो । अर्थात् उनका शरीर कंचनवर्णका था। उनके शरीरसे स्फुरायमान ( दैदीप्यमान ) आभा निकलती थी, जो सम्पूर्ण शरीरको व्याप्त करके प्रभामण्डलका रूप धारण कर लेती थी। श्री मल्लि जिनकी वाणी भी जीवादि समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाली थी। उस वाणीकी एक विशेषता यह थी कि उसके द्वारा किया गया वस्तुतत्त्वका प्रतिपादन स्यात् पद पूर्वक होता था। स्यात, शब्दके प्रयोगसे अनेकान्तवादका समर्थन होता है और सर्वथा शब्दके प्रयोगसे एकान्तवादका प्रसंग आता है । श्री मल्लि जिनका सम्पूर्ण प्रवचन अनेकान्तरूप है, एकान्तरूप नहीं। उनकी ऐसी वाणी भव्य जीवोंको आकर्षित करके अपने में अनुरक्त करती है । इस प्रकार उनका शरीर और वाणी दोनों ही भव्य जीवोंको प्रसन्न करती हैं। भव्य जीव उनके सुन्दर शरीरको देखकर तथा स्यात् पद पूर्वक प्रयुक्त उनकी वाणीको सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। मैं ऐसे मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ।
यस्य पुरस्ताद् विगलितमाना
न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते। भूरपि रम्या प्रतिपदमासी
ज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा ॥३॥ सामान्यार्थ-जिनके सामने एकान्तवादी जन खण्डित मान होकर पृथिवी पर विवाद नहीं करते थे और जिनके विहारके समय पृथिवी भी पद-पद पर विकसित कमलों द्वारा मृदुहासको लिए हुए थी, मैं ऐसे मल्लि जिनकी शरणको प्राप्त हुआ हूँ।
विशेषार्थ-श्री मल्लि जिनकी वाणी स्यात् पद पूर्वक होनेके कारण अनेकान्तवादकी समर्थक और एकान्तवादको प्रतिषेधक थी । यही कारण है कि उनके समक्ष जाने पर एकान्तवादी जनोंका मान ( एकान्तवादका अहंकार ) गलित ( नष्ट ) हो जाता था। अतः वे स्वपक्षकी सिद्धिके लिए और परपक्षमें दूषण देनेके लिए विवाद नहीं करते थे। समवसरणमें जाते ही उनका मान नष्ट हो जाता था। इस कारण वे वाद-विवादको भूलकर श्री मल्लि जिनकी शरणमें आ गये थे । इस भूमण्डल पर श्री मल्लि जिनके विहारके समय देवों द्वारा पद-पद पर कमलोंकी रचना की जाती थी। उन खिले हुए कमलोंसे पृथिवी अत्यन्त मनोहर
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