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श्री वासुपूज्य जिन स्तवन
नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यत्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ॥ ३५ ॥
अर्थात् उपदेशादि निमित्तोंके द्वारा अज्ञ जनको विज्ञ नहीं बनाया जा सकता है और न विज्ञको अज्ञ बना सकते हैं । क्योंकि इस कार्य में पर पदार्थ तो निमित्त मात्र होते हैं । जिस प्रकार कि स्वयं गमनशील जीव और पुद्गलोंकी गमनक्रिया में धर्मास्तिकाय केवल निमित्त होता है। इसका भाव यही है कि सर्वत्र उपादानकी ही प्रधानता है ।
संस्कृत टीकाकारने चतुर्थं श्लोकके प्रारम्भ में 'मुनीनां पुष्पादिपरिग्रहासंभवात् कथं भगवति पूजा स्यात् ।' ऐसा जो उत्थानिका वाक्य दिया है वह विचारणीय है । क्योंकि चतुर्थ श्लोक में पूजाकी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं हो रही है । फिर भी यहाँ पूजाकी दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है । यदि यहाँ इस बात - पर विचार किया जाय कि जल, चन्दनादि बाह्य सामग्रीके बिना पूजा हो सकती है या नहीं | तो इसका सीधा और सरल उत्तर है कि बाह्य सामग्री के बिना भी केवल शुभ परिणामोंसे भगवान् की भावपूजा हो सकती है और इस पूजासे जो पुण्य उत्पन्न होता है उसका निमित्त कारण भी कोई न कोई अवश्य रहता है । जब कोई साधु जिनबिम्बके समक्ष स्थित होकर भगवान्की स्तुति या भावपूजा करता है उस समय पुण्यकी उत्पत्ति में जिनबिम्ब निमित्त कारण है । जिनबिम्बके अभाव में भी भावपूजा की जा सकती है । उस समय पूजककी मन, वचन और काकी प्रवृत्ति पुण्यकी उत्पत्ति में निमित्त कारण होती है । तात्पर्य यह है कि भावपूजा करने से जो पुण्यरूप कार्य उत्पन्न होता है उसमें उपादानके साथ निमित्त कारणकी उपस्थिति भी अवश्य रहती है ।
बाह्येत रोपाधिसमग्रतेयं
कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।
नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां
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तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥ ५॥ (६०)
सामान्यार्थ - हे भगवन् ! कार्यों में बहिरंग और अन्तरंग कारणोंकी यह जो पूर्णता है वह आपके मतमें जीवादि द्रव्यगत स्वभाव है । इस द्रव्यगत स्वभावबिना पुरुषों मोक्षको विधि भी नहीं बनती है । इस कारण परम ऋद्धियोंसे सम्पन्न आप गणधरादि बुधजनोंके द्वारा वन्दनीय हैं ।
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विशेषार्थ - घटादि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति बहिरंग ( निमित्त) और अन्तरंग ( उपादान ) कारणोंकी पूर्णता होनेपर ही होती है । घट निर्माण योग्य
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