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श्री शान्ति जिन स्तवन
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गुणस्थानमें होता है । तृतीय शुक्लध्यान सयोगकेवलीके और चतुर्थ शुक्लध्यान अयोगकेवलीके होता है। __मोहचक्रसे तात्पर्य मोहनीय कर्मकी मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंसे है । मोहनीय कर्मकी मूल प्रकृति दो है-दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शनमोहनीयके ३ भेद है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । चारित्रमोहनीयके २५ भेद हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे १६ कषायवेदनीय होते हैं। तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद ये नौ अकषायवेदनीय हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्मकी कुल २८ प्रकृतियाँ होती हैं ।
राज्यश्रिया राजसु राजसिंहो
रराज यो राजसुभोगतन्त्रः । आर्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रो
देवासुरोदारसभे रराज ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ-राजाओंमें श्रेष्ठ तथा राजाओंके योग्य उत्तम भोगोंके अधीन जो शान्ति जिन गृहस्थ अवस्थामें राजाओंके मध्यमें राज्यलक्ष्मीसे सुशोभित हुए थे, वे ही शान्ति जिन परम वीतराग अवस्थामें आत्माधीन होकर देव और असुरोंको विशाल समवसरण सभामें आर्हन्त्य लक्ष्मीसे सुशोभित हुए थे।
विशेषार्थ-श्री शान्तिनाथ जिन राजाओंमें श्रेष्ठ राजा (चक्रवर्ती राजा) थे । तथा राजाओंके योग्य जो अच्छेसे अच्छे भोग हैं वे सब भोग उन्हें प्राप्त थे। 'राजसुभोगतन्त्र' शब्दका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि वे राजाओंके योग्य भोगोंके अधीन थे अथवा भोग उनके अधीन थे-वे अधिकसे अधिक भोगोंको प्राप्त करनेकी स्थितिमें थे। दोनों ही स्थितियोंका तात्पर्य यही है कि श्री शान्ति जिन सराग अवस्थामें आत्माधीन न होकर भोगाधान थे। ऐसे शान्ति जिन अपने अधीन बत्तीस हजार राजाओंके बीचमें नौ निधि और चौदह रत्नोंके रूपमें प्राप्त राज्य लक्ष्मीसे सुशोभित हुए थे। ___ वे ही शान्ति जिन जब वीतराग अवस्थामें पहुँचकर शुक्लध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोंका नाश कर आत्मतन्त्र (आत्माधीन या स्वाधीन) हुए उस समय वे अर्हन्त अवस्थामें देवों और असुरोंकी विशाल समवसरण सभामें अनन्तज्ञानादिरूप अन्तरंग और अष्टप्रातिहार्यादिरूप बहिरंग आर्हन्त्य लक्ष्मीसे सुशोभित हुए थे।
उपरि लिखित श्लोकमें आगत 'देवासुरोदारसभे' शब्द विचारणीय है। भगवान्के समवसरणमें बारह सभायें होती हैं। उन सभाओंमें देव और असुरोंके
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