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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका ध्यानरूप चक्रसे दुर्जय मोहनीय कर्म समूहको जीत कर जो महान् उदयको प्राप्त हुए थे।
विशेषार्थ--श्री शान्ति जिन तीर्थंकर होनेके साथ पञ्चम चक्रवर्ती भी थे । चक्रवर्ती होनेके फलस्वरूप उनके पास सुदर्शनचक्र था। यह चक्र शत्रुओंके लिए भय उत्पन्न करनेवाला था। इस कारण अधिक से अधिक बलवान् शत्रु भी सुदर्शनचक्रके सामने टिक नहीं सकता था। श्री शान्ति जिनने इस सुदर्शनचक्रके द्वारा बत्तीस हजार राजाओंको जीत कर अपने अधीन किया था। इस प्रकार उन्होंने गृहस्थ अवस्थामें महान् अभ्युदयको प्राप्त किया था।
इसके पश्चात् जब वे दिगम्बर मुद्रा धारण कर मुनि हुए उस समय धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानरूप चक्रके द्वारा मोहनीय कर्मको जीत लिया था। मोहनीय कर्मको जीतना सरल नहीं है, वह बड़ी कठिनाईसे जीता जाता है । मोहनीय कर्मको मूल प्रकृति दो हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय की उत्तर प्रकृति तीन हैं और चारित्र मोहनीयको उत्तर प्रकृति पच्चीस हैं । इस प्रकार उन्होंने मोहनीय कर्मकी मूल और उत्तर प्रकृतियोंको समाधिचक्रके द्वारा जीत लिया था। यहाँ मोहचक्र उपलक्षण है। इसके द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका भी ग्रहण करना चाहिए । उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि श्री शान्ति जिनने चार घातिया कर्मोंको जीत कर केवलज्ञानादिरूप महान् अभ्युदयको प्राप्त किया था।
यहाँ 'समाधिचक्र' और 'मोहचक्र' शब्दों पर विशेष विचार कर लेना आवश्यक है । समाधिचक्रसे तात्पर्य धर्म्य और शुक्ल इन दो ध्यानोंसे है। क्योंकि ये दोनों ध्यान मोक्षके हेतु होते है। धर्म्यध्यानके चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । यह धर्म्यध्यान अविरत, देशविरत, प्रमयसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवोंके होता है । अर्थात् उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी आरोहणके पहले धर्म्यध्यान होता है और श्रेणी आरोहणके समयसे शुक्लध्यान होता है । शुक्ल ध्यानके चार भेद हैं--पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्यक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति । इनमें से पहले दो ध्यान पूर्वविदों (चौदह पूर्वोके ज्ञाताओं) के होते हैं और अन्तके दो ध्यान केवलोके होते हैं। प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणीके सब गुणस्थानों में और क्षपक श्रेणीके दसवें गुणस्थानमें होता है। और द्वितीय शुक्लध्यान बारहवें १. परे मोक्षहेतू । -तत्त्वार्थसूत्र ९/२९ २. शुक्ले चाद्य पूर्वविदः । -तत्त्वार्थसूत्र ९,३७ ३. परे केवलिनः । -तत्त्वार्थसूत्र ९/३८
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