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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका अतिरिक्त मनुष्य और तिर्यञ्च भी उपस्थित रहते हैं। तब समवसरण सभाको देव और असुरोंकी सभा क्यों कहा गया है । सम्भवतः यहाँ असुर शब्दका तात्पर्य अदेवसे है। सुरका अर्थ देव होता है। और असुरका अर्थ अदेव किया जा सकता है । अतः असुर (अदेव) शब्दके द्वारा मनुष्य और तियं चोंका भी ग्रहण हो जाता है । अतः श्री शान्ति जिन देवों और मनुष्यादिकोंकी विशाल सभामें सुशोभित हुए थे, ऐसा अर्थ करने से किसी भी प्रकारको विप्रति त्ति नहीं रहेगी ।
यस्मिन्नभूद् राजनि राजचक्र
___ मुनौ दयादीधिति धर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्र
ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ-जिन शान्ति जिनके राजा होने पर राजाओंका समूह बद्धाञ्जलि हुआ था, मुनि होने पर दयाकी किरणोंवाला धर्मचक्र बद्धाञ्जलि हुआ था, पूज्य होने पर देवोंका समूह बार-बार बद्धाञ्जलि हुआ था और ध्यानके सन्मुख होने पर क्षयको प्राप्त होता हुआ कर्मोका समूह बद्धाञ्जलि हुआ था।
विशेषार्थ-जब श्री शान्ति जिन चक्रवर्ती राजा थे उस समय उनके अधीन समस्त राजाओंका समूह हाथ जोड़कर उनके आदेशकी प्रतीक्षामें खड़ा रहता था । जब राज्यको छोड़कर वे मुनि हो गये तब दयासे युक्त धर्मचक्र उनके अधीन हो गया। यहाँ धर्मचक्रका अर्थ है-चारित्र अथवा उत्तम क्षमादि धर्मोंका समूह । दया दीधितिका अर्थ है-दया ही हैं किरणें जिसकी अथवा दयाका है प्रकाश जिसमें । 'दया दीधिति' शब्द धर्मचक्रका विशेषण है । धर्मचक्रसे किरणें निकलती हैं । शान्ति जिनके धर्मचक्रसे दयाकी किरणें निकलती थीं अथवा धर्मचक्रमें दयाका प्रकाश व्याप्त था। ऐसा धर्मचक्र उनक अधीन हो गया था अर्थात् वे धर्ममय हो गये थे । यहाँ धर्मचक्रका एक अर्थ और है। जब शान्ति जिन चार घातिया कर्मोंका क्षय कर अर्हन्त हो गये तब उनके विहारके समय आगे-आगे चलनेवाला देवरचित धर्मचक्र उनके अधीन होकर ही गमन करता था।
जब शान्तिनाथ भगवान् पूज्य हुए अर्थात् समवसरणमें विराजमान होकर दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश करने लगे तब चतुनिकायके देवोंका समूह बार-बार हाथ जोड़कर उनकी वन्दना करता था। अन्तमें जब वे अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानमें व्युपरतक्रियानिवति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके सन्मुख हुए. तब अघातिया कर्मोंका समूह नाशको प्राप्त होता हुआ हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ा हो गया था। कृतान्तचक्रका एक अर्थ है-कर्मसमूह और दूसरा अर्थ है
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