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श्री कुन्थु जिन स्तवन
१२७ और सम्यक्चारित्रको रत्नत्रय कहते हैं। रत्नत्रयका स्वभाव कर्मोके दहन करनेका है । यहाँ रत्नत्रयके प्रकर्ष (अतिशय) को तेज (अग्नि) कहा गया है । अतः प्रकर्षको प्राप्त रत्नत्रयरूप अग्निमें चार घातिया कर्म भस्म हो जाते हैं। और चार घातिया कर्मोंका नाश हो जाने पर भगवान् अनन्तवीर्य सम्पन्न हो जाते हैं । अर्थात् अनन्तज्ञानादि अनन्तचतुष्टयसे सम्पन्न होकर अर्हन्त हो जाते हैं । ___ अर्हन्त अवस्थामें भगवान् समवसरणमें विराजमान होकर दिव्यध्वनि द्वारा जीवादि तत्त्वोंका निरूपण करते हैं और इसीके आधार पर चार ज्ञानके धारी गणधर द्वादशांगरूप परमागमकी रचना करते है। अतः परमागमके मुलकर्ता भगवान् ही कहे जाते हैं। श्री कुन्थु जिन सकलवेदविधिके विधाता हैं । सकल लोक और अलोकके परिज्ञानको वेद कहते हैं । और ऐसे वेदका विधान (प्रणयन) श्री कुन्थु जिनके द्वारा हुआ है । जातवीर्य (शक्तिसम्पन्न) और सकलवेदविधि के प्रणेता श्री कुन्थ जिन इस लोकमें उसी प्रकार शोभायमान हुए थे जिस प्रकार मेध रहित आकाशमें चमकता हुआ सूर्य शोभित होता है ।
यस्मान्मुनीन्द्र तव लोकपितामहाद्या
विद्याविभूतिकणिकामपि नाप्नुवन्ति तस्मादभवन्तमजप्रतिमेयमार्याः
स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥५॥ (८५) सामान्यार्थ-हे मुनीन्द्र ! यतः ब्रह्मा आदि लौकिक देवता आपकी विद्याकी और विभूतिकी एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं करते हैं, इसलिए आत्महित साधनामें निमग्न और उत्तम बुद्धिके धारक गणधरादि देव पुनर्जन्मसे रहित, अपरिमित और स्तुतिके योग्य आपकी स्तुति करते हैं।
विशेषार्थ--श्री कुन्थु जिन गणधरादि मुनियोंके स्वामी होनेसे मुनीन्द्र कहलाते हैं। चार घातिया कर्मोका क्षय हो जाने पर केवलज्ञानरूप विद्या और समवसरणादिरूप विभूति (लक्ष्मी) उनको प्राप्त हो जाती है। इस लोकमें पितामह ( ब्रह्मा ) विष्णु, महेश, कपिल, सुगत, जैमिनी आदि अनेक लौकिक देवता हैं। ये सब देवता भगवान् कुन्थु नाथकी विद्या और विभूतिके एक कणको भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसका कारण यही है कि उनमें रागादि दोष विद्यमान हैं और उनके कर्मोंका क्षय नहीं हुआ है । न तो वे वीतराग हैं और न सर्वज्ञ हैं । ___अतः जो आत्मकल्याण करना चाहते हैं, जो मोक्षके आकांक्षी हैं और जो उत्तम बुद्धिके धारक हैं ऐसे आर्य जन ( गणघरादि ) श्री कुन्थु जिनकी स्तुति करते हैं । क्योंकि श्री कुन्थु जिन पुनर्जन्मसे रहित हैं, उनका यह अन्तिम जन्म है, अनन्तज्ञानके धारक होनेसे अपरिमित हैं और शत इन्द्रों द्वारा पूज्य होनेके कारण स्तुत्य हैं।
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