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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका निर्जरा होती है । श्री कुन्थु जिनने आभ्यन्तर तपकी परिवृद्धिके लिए अत्यन्त कठिन अनशनादि बाह्य तपोंका आचरण किया था। बाह्य तपोंके आचरणसे अन्तरंग तपोंकी सब प्रकारसे वृद्धि होती है । तात्पर्य यह है कि श्री कुन्थु जिन बाह्य और अन्तरंग दोनों तपोंका आचरण करते हुए संवर और निर्जराके मार्गमें प्रवृत्त हुए थे।
आत्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे ध्यानके चार भेद हैं। इनमें से प्रारम्भके दो ध्यान संसारके कारण होनेसे अप्रशस्त ध्यान कहलाते हैं । अतएव ये दोनों ध्यान त्याज्य हैं। धर्म्यध्यान और शक्ल ध्यान मोक्षके कारण होनेसे प्रशस्त ध्यान हैं। इसलिए ये दोनों ध्यान उपादेय हैं। यहाँ यह दृष्टव्य है कि धर्म्यध्यान परम्परासे मोक्षका कारण होता है और शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्षका कारण होता है । ये दोनों हो ध्यान अतिशयसे सम्पन्न हैं । इनका अतिशय यही है कि इनके द्वारा कर्मोकी निर्जरा और मोक्षकी प्राप्ति होती है। संस्कृतटोकाकारने अतिशयका अर्थ भेद भी किया है। धय॑ध्यानके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं। शुक्ल ध्यानके पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये चार भेद हैं । श्री कुन्थु जिन मुनि अवस्थामें आर्त और रौद्र इन दो कलुषित ध्यानोंको छोड़कर धर्म्य और शुक्ल इन सातिशय दो ध्यानोंमें प्रवृत्त हुए थे।
हुत्वा स्वकर्मकटुकप्रकृतीश्चतस्रो
___ रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्यः । बभ्राजिषे सकलवेदविविनेता
व्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ-हे भगवन् ! अपने कर्मोंको चार कटुक प्रकृतियोंको रत्नत्रयरूप सातिशय अग्निमें होमकर शक्ति सम्पन्न तथा सम्पूर्ण आगमके प्रणेता आप इस प्रकार शोभायमान हुए थे जिस प्रकार निरभ्र आकाशमें दैदीप्यमान किरणोंसे युक्त सर्य शोभित होता है ।
विशेषार्थ-सातिशय ध्यान करते हुए श्री कुन्थु जिन ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंको रत्नत्रयरूप सातिशय अग्निमें भस्म कर दिया था। बारहवें गुणस्थानके अन्तमें मोहनीय और तेरहवें गुणस्थानमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होता है। चार घातिया कर्मोको प्रकृतियाँ कटुक (कड़वी) हैं, क्योंकि इनके द्वारा आत्माके अनन्तज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंका घात (आच्छादन) होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान १. पर मोक्ष हेतू । तत्त्वार्थसूत्र ९/२९
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