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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका सामान्यार्थ—सब ओर फैलनेवाले आपके शरीरके विशाल प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार नाशको प्राप्त हुआ है और ध्यानरूप तेजके द्वारा आध्यात्मिक (अन्तरंग) अन्धकार नाशको प्राप्त हुआ है ।
विशेषार्थ-यहाँ श्री अर जिनके शारीरिक और आध्यात्मिक तेजको बतलाया गया है । उनका शरीर परमौदारिक शरीर है। उस शरीरसे तेजयुक्त किरणें निकलती रहती हैं। वे तेजयुक्त किरणें चारों ओर व्याप्त होकर विशाल प्रभामण्डलका रूप धारण कर लेती हैं। उस प्रभामण्डलके द्वारा उनके निकटवर्ती समस्त बाह्य अन्धकार नष्ट हो जाता है। श्री अर जिनने शुक्लध्यानरूप तेजके द्वारा अन्तरंग अन्धकारको भी नष्ट कर दिया है । आत्माके भीतर रहनेवाला अज्ञानान्धकार आध्यात्मिक या अन्तरंग अन्धकार कहलाता है। शुक्लध्यानके द्वारा ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोका क्षय हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और इस ज्ञानके द्वारा आत्मा ज्ञानमय (प्रकाशमय) हो जाता है । अतः श्री अर जिन बाह्य और आध्यात्मिक इन दोनों प्रकारके अन्धकारोंको दूर (नष्ट) करने वाले हैं।
सर्वज्ञज्योतिषोद्भस्तावको महिमोदयः । कं न कुर्यात् प्रणनं ते सत्त्वं नाथ सचेतनम् ॥ ११ ॥
सामान्यार्थ-हे नाथ ! सर्वज्ञकी ज्योतिसे उत्पन्न हुआ आपकी महिमाका उदय किस सचेतन प्राणीको नम्रीभूत नहीं कर देता है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका क्षय हो जाने पर यह आत्मा सर्वज्ञ हो जाता है। सर्वज्ञका केवलज्ञानस्वरूप जो अनन्तज्ञान है वही सर्वज्ञ ज्योति है। इस ज्योतिसे अर्हन्त भगवान्का माहात्म्य बहुत बढ़ जाता है । जब श्री अर जिन समवसरणमें विराजमान होकर दिव्यध्वनिके द्वारा संसारके प्राणियोंके कल्याणके लिए हितोपदेश देते हैं तब समवसरण सभामें उपस्थित सभी जीवों पर भगवान्के केवलज्ञानका विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है । उस समय गुण-दोषके विचारमें चतुर प्राणी भगवान्के माहात्म्यसे प्रभावित होकर नतमस्तक हो जाता है । श्री अर जिनका ऐसा माहात्म्य है कि अत्यधिक अहंकारी मनुष्य भी समवसरणमें पहुँचते ही अपने अहंकारको छोड़कर अत्यन्त विनम्र हो जाता है और भगवान्को साष्टांग प्रणाम करता है ।
तव वागमृतं श्रीमत् सर्वभाषास्वभावकम् । प्रोणयत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ १२ ॥ सामान्यार्थ हे भगवन् ! सर्व भाषाओंमें परिणत होनेके स्वभावसे युक्त
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