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स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका ही वस्तुमें परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले सत्-असत् आदि धर्म बिना किसी विरोधके एक साथ रहते हैं । क्योंकि वस्तुका स्वभाव ऐसा ही है । ___ इसके विपरीत सदेकान्त, असदेकान्त, नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदि जो एकान्त दृष्टियाँ हैं वे सब मिथ्या हैं। क्योंकि पदार्थ न तो सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है, न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है । वह तो कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। अतः अनेकान्तदृष्टिसे रहित जो भी कथन है वह सब मिथ्या है। इसके साथ ही एकान्तदृष्टि सहित कथन अपना घात स्वयं ही करता है । इसका तात्पर्य यही है कि असतकी सत्ता स्वीकार किये बिना सत्की सिद्धि नहीं हो सकती है और क्षणिककी सत्ता स्वीकार किए बिना नित्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है । अतः असतके अभावमें सत्का घात (नाश) हो जाता है। और क्षणिकके अभावमें नित्यका घात हो जाता है । इस प्रकार एकान्तदृष्टि स्वघाती है । उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह है कि श्री अर जिनकी अनेकान्तदृष्टि ही समीचीन है और इसके अतिरिक्त अन्य समस्त एकान्तदृष्टियाँ असमीचीन हैं ।
ये परस्खलितोन्निद्राः स्वदोषेनिमीलनाः। तपस्विनस्ते किं कुर्युरपात्रं त्वन्मतश्रियः ॥ १४ ॥ सामान्यार्थ हे अर जिन ! जो एकान्तवादी परके दोष देखने जाग्रत रहते हैं और अपने दोषोंके विषयमें गज-निमीलनका व्यवहार करते हैं वे बेचारे क्या करें । क्योंकि वे आपके अनेकान्त मत की श्री (लक्ष्मी) के पात्र नहीं हैं ।
विशेषार्थ-एकान्तवादी कहते हैं कि अनेकान्तदर्शनमें विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव ये आठ दोष आते हैं । सत् और असत्के एक साथ रहनेमें विरोध है, यह विरोध दोष है । सत्का अधिकरण दूसरा है और असत्का अधिकरण दूसरा है, यह वैयधिकरण्य दोष है । वस्तु जिस स्वरूपसे सत् है और जिस स्वरूपसे असत् है, उन दोनों स्वरूपोंमें भी सत्-असत्की कल्पना करनेसे अनवस्था दोष आता है । वस्तु जिस स्वरूपसे सत् है उसी ‘स्वरूपसे सत् और असत् दोनों रूप हो जायेगी अथवा वह जिस स्वरूपसे असत् है उसी स्वरूपसे सत् और असत् दोनों रूप हो जायेगी, यह संकर दोष है । वस्तु जिस स्वरूपसे सत् है उस स्वरूपसे असत् हो जायेगी
और जिस स्वरूपसे असत् है उस स्वरूप से सत् हो जायेगी, यह व्यतिकर दोष है । वस्तुके सदसदात्मक होनेसे किसी एक असाधारण धर्मका निश्चय न होनेसे संशय दोष होता है। संशयके कारण वस्तुकी यथार्थ प्रतिपत्ति न होनेसे अप्रतिपत्ति दोष होता है । और वस्तुको प्रतिपत्ति न होने के कारण उसका अभाव हो जायेगा, यह अभाव दोष है ।
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