Book Title: Swayambhustotra Tattvapradipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 154
________________ श्री अर जिन स्तवन १३५ तथा समवसरण सभामें व्याप्त होनेवाला आपका श्रीसम्पन्न वचनामृत प्राणियोंको अमृतके समान सन्तुष्ट करता है । विशेषार्थ-यहाँ भगवान्की दिव्यध्वनिका माहात्म्य बतलाया गया है । जब श्री अर जिन समवसरण सभाके मध्यमें विराजमान होकर धर्मोपदेश देते हैं उस समय चारों प्रकारके देव, विभिन्न प्रदेशोंके मनुष्य और तिर्यंच भी समवसरणमें उपस्थित रहते हैं । सबकी भाषा भिन्न-भिन्न होती है । किन्तु भगवान्की वाणीमें ऐसा अतिशय पाया जाता है कि जो श्रोता जिस भाषाका जानकार है उसो भाषामें उसका परिणमन हो जाता है। इस प्रकार सब श्रोता अपनी-अपनी भाषामें भगवानकी वाणीको समझ लेते हैं । समवसरणमें लाखोंकी संख्यामें भव्य जीव उपस्थित रहते हैं। उस वाणीका एक अतिशय यह भी है कि वह सम्पूर्ण समवसरण सभामें व्याप्त हो जाती है, जिससे वह सब श्रोताओंको सरलतासे सुनाई देती है। कोई श्रोता कितना भो दूर क्यों न बैठा हो उसे दिव्यध्वनिको सुनने कोई कठिनाई नहीं होती। वह वाणी समस्त पदार्थोंके यथार्थस्वरूपका प्रतिपादन करती है । पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादन करना ही उसकी श्री (शोभा या लक्ष्मी) है । श्री अर जिनका ऐसा वचनामृत अनन्त सुखका कारण होनेसे समस्त प्राणियोंको उसी प्रकार संतुष्टि प्रदान करता है जिस प्रकार अमृतपान करनेसे प्राणी परम आनन्दको प्राप्त होता है । अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात् तदयुक्तं स्वघाततः ॥ १३ ॥ सामान्यार्थ हे अर जिन ! आपकी अनेकान्तरूप दृष्टि सत्य है । इसके विपरीत जो एकान्तदृष्टि है वह शून्य (मिथ्या) है । अतः जो कथन अनेकान्त दृष्टिसे रहित है वह सब अपना घातक होनेसे मिथ्या है। विशेषार्थ-लोकमें दो प्रकारके मत दृष्टिगोचर होते हैं अनेकान्तदृष्टि सहित और एकान्तदृष्टि सहित । श्री अर जिनका जो मत है वह अनेकान्तदृष्टिको लिए हुए है । इसके विपरीत सांख्य, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, मीमांसक आदिका मत एकान्तदृष्टिको लिए हुए है । यहाँ इस बातपर विचार किया गया है कि इन दोनों दृष्टियोंमेंसे कौन दृष्टि सत्य है और कौन दृष्टि मिथ्या है । श्री अर जिनकी जो अनेकान्तदष्टि है वह सत्य है । क्योंकि संसारके समस्त पदार्थ सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि अनन्तधर्मात्मक हैं । जो मत ऐसे अनेक (अनन्त) अन्तों (धर्मों) का एक ही वस्तुमें रहनेका प्रतिपादन करता वह अनेकान्तदृष्टि या अनेकान्तदर्शन है। अनेकान्तदर्शन बतलाता है कि एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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