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श्री अर जिन स्तवन
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फिर भी श्रद्धापूर्वक उनके नामका उच्चारण या स्मरण भी हमें पवित्र करता है। तात्पर्य यह है कि उनके अनन्त गुणोंका कथन करना सम्भव नहीं है तो इससे हमारी कोई हानि नहीं होती है । उनके अनन्त गुणोंमेंसे एक या दो गुणोंका कथन तो हम कर ही सकते हैं । यह भी सम्भव न हो तो हम भक्तिपूर्वक उनका नामकीर्तन या स्मरण तो कर हो सकते हैं और वह नामकीर्तन भी हमारा कल्याण कर सकता है । इसलिए स्तुतिकार आगे श्री अर जिनके गुणोंका लेशमात्र कथन कर रहे हैं।
लक्ष्मीविभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाञ्छनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तृणमिवाभवत् ॥३॥ सामान्यार्थ-लक्ष्मीके वैभवरूप सवस्वसे सम्पन्न तथा सुदर्शनचक्र सहित जो सार्वभौम साम्राज्य आपको प्राप्त था वह मुमुक्षु होने पर आपके लिए जीर्ण तृणके समान हो गया।
विशेषार्थ-श्री अर जिन चक्रवर्ती सम्राट् थे। इस कारण उनका साम्राज्य सार्वभौम था। भरत क्षेत्रके छह खण्डों पर उनका आधिपत्य था। नौ निधियों और चौदह रत्नोंसे युक्त महती लक्ष्मीका वैभव उस सार्वभौम साम्राज्यका सर्वस्व था और देवोपनीत सुदर्शनचक्र उनके साम्राज्यका चिह्न था। राज्यावस्थामें श्री अर जिनका ऐसा विशाल साम्रज्य था। किन्तु जब वे मुमुक्षु हुए तब उन्हें उक्त विशाल साम्राज्य जीर्णं तृणके समान मालूम पड़ने लगा। मुमुक्षुका अर्थ हैमोक्षके इच्छुक अथवा सर्वपरिग्रहत्यागके इच्छुक । अतः जब श्री अर जिन संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त हो गये तब उन्होंने विशाल साम्राज्यको जीर्ण तणके समान छोड़ दिया।
तव रूपस्य सौन्दर्य दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ-आपके रूपके सौन्दर्यको देखकर दो नेत्रोंका धारक इन्द्र तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ । इसलिए वह बहुत आश्चर्यको प्राप्त होता हुआ हजार नेत्रोंका धारक हो गया।
विशेषार्थ-श्री अर जिन तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव थे। कामदेव होनेके कारण उनके शरीरका सौन्दर्य अद्भुत था। जन्म कल्याणकके समय जब इन्द्राणी बालक अर जिनको प्रसूति गृहसे बाहर लाकर जन्माभिषेकके लिए सुमेरु पर्वतपर ले जानेके लिए सौधर्म इन्द्रको सोंपने लगी तब सौधर्म इन्द्र कामदेव अर जिनको सुन्दरताको देखकर आश्चर्यचकित हो गया। दो नेत्रोंसे
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