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श्री
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सामान्यार्थ - तृष्णारूप अग्निको ज्वालायें संसारी जीवको चारों ओर से जलाती हैं | अभिलषित इन्द्रिय-विषयोंके वैभवसे इनकी शान्ति नहीं होती है, किन्तु सब ओरसे वृद्धि ही होती है । क्योंकि इन्द्रिय-विषयोंका स्वभाव ही ऐसा है । इन्द्रिय विषय शरीरके संतापको दूर करनेमें निमित्त मात्र हैं । ऐमा जानकर श्री कुन्थु जिन विषय सौख्यसे परान्मुख हो गये थे ।
विशेषार्थ - श्री कुन्थु जिनने चक्रवर्तीके राज्यवैभवको छोड़कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली थी। क्योंकि उन्होंने इस बातको अच्छी तरह से समझ लिया था कि तृष्णा ( भोगाकांक्षा) संसारी जीवको सदा संतप्त करती रहती है । तृष्णा अग्निके समान है । तृष्णारूप अग्निकी ज्वालायें इस जीवको सदा सब ओरसे जलाती रहती हैं । अपने अनुकूल इन्द्रिय विषयोंका अधिक से अधिक वैभव या प्रचुर परिणाममें संग्रहसे भोगाकांक्षाकी शान्ति न होकर उल्टी वृद्धि ही होती है । जिसप्रकार ईन्धनसे अग्निकी शान्ति न होकर वृद्धि ही होती है, उसी प्रकार इन्द्रिय विषयोंके संग्रहसे तृष्णाकी शान्तिके स्थान में अधिकाधिक वृद्धि ही होतीं है । इसका कारण यह है कि इन्द्रिय-विषयोंका ऐसा ही स्वभाव है जो तृष्णाकी अभिवृद्धि ही करता है । अभिलषित इन्द्रिय विषयोंके सेवन से कुछ समय के लिए शरीरका संताप तो दूर हो सकता है किन्तु मानसिक संताप दूर नहीं होता है । अतः इन्द्रिय विषय शरीर के संतापको दूर करने में निमित्तमात्र हैं, वे तृष्णाकी उपशान्ति करनेवाले नहीं हैं । श्री कुन्थु जिन इन्द्रिय विजेता थे । अतः वे इन्द्रिय-विषयोंके स्वरूपको जानकर इन्द्रिय-विषयजन्य सुखसे विमुख हो गये थे । यही कारण है कि उन्होंने चक्रवर्तीके वैभवको छोड़कर आत्मविकास करने के लिए जिन दीक्षा धारण करली थी ।
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन्
ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने || ३ || सामान्यार्थ - हे कुन्थु जिन ! आप आध्यात्मिक तपकी परिवृद्धि के लिए अत्यन्त कठिन बाह्य तपका आचरण करते हुए आर्त्त- रौद्ररूप दो कलुषित ध्यानोंको छोड़कर उत्तरवर्ती धर्म्य और शुक्ल इन दो सातिशय ध्यानोंमें प्रवृत्त हुए थे ।
विशेषार्थ - तपके दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तप हैं । इन तपोंका आचरण करनेसे कर्मोंका संवर और
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कुन्थु जिन स्तवन
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