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(१५) श्री धर्म जिन स्तवन धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन्
धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । कर्मकक्षमदहत्तपोऽग्निभिः
शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥१॥ सामान्यार्थ-हे धर्म जिन ! निर्दोष धर्मतीर्थको प्रवर्तित करते हुए आप सत्पुरुषों द्वारा 'धर्म' इस नामके धारक माने गये हैं। तथा आपने तपरूप अग्नियोंके द्वारा कर्मरूप वनको जलाया है और अविनाशी सुखको प्राप्त किया है । इसलिए आप शंकर भी हैं।
विशेषार्थ-पन्द्रहवें तीर्थंकरका नाम 'धर्म' है । उनका यह नाम सार्थक है । क्योंकि उन्होंने निर्दोष धर्म तीर्थको प्रवर्तित किया है। उत्तम क्षमादिको अथवा सम्यग्दर्शनादिको धर्म कहते हैं। यह धर्म संसार समुद्रसे पार उतरनेका साधन होनेसे तीर्थ कहलाता है। तीर्थ घाटको कहते हैं । नदीके किनारे घाट बने रहते हैं । स्नानादि करनेके इच्छुक जन घाटके माध्यमसे स्नानादि क्रियाओंको सुगमतापूर्वक सम्पन्न कर लेते हैं। इसी प्रकार मोक्षके इच्छुक जन धर्मतीर्थके द्वारा संसार समुद्रको पार करके मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेते हैं । धर्म तीर्थका दूसरा अर्थ आगम भी होता है। धर्मका प्रतिपादन करनेवाला जो आगम है वह धर्म तीर्थ है । उत्तम क्षमादिरूप धर्म तीर्थ हिंसादि पापोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष है और आगमरूप धर्म तीर्थ पूर्वापरविरोधसे रहित होनेके कारण निर्दोष है।
श्री धर्म जिनने ऐसे धर्म तीर्थका प्रवर्तन किया है। इसलिए गणधरदेवादि सत्पुरुषों द्वारा उनका 'धर्म' यह सार्थक नाम स्वीकार किया गया है। श्री धर्म जिनको शंकर भी कहते हैं। शंकरका अर्थ है-सुखको देनेवाला । श्री धर्म जिनने द्वादश प्रकारके तपरूप अग्निके द्वारा कर्मरूप वनको जलाकर अविनाशी अनन्त सुखको स्वय प्राप्त किया है तथा धर्मतीर्थका प्रवर्तन करके भव्य जीवोंको भी सुख प्राप्त कराया है । इसलिए उनका शंकर यह नाम भी सार्थक है ।
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